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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कितनी खुशी, कितना हर्ष!! में वत्सलता के बादल मँडराने लगे। सुरसुंदरी टकटकी बाँधे धनवती को देखने लगी... उसके बाहरी सौंदर्य को देखती रही... उसके आंतरव्यक्तित्व को देखती रहीं... महसूसती रही...'यह रूप... यह सौंदर्य... सब कुछ अमर में ज्यों का त्यों उतरा है।' वह मन ही मन सोचने लगी। ___ अपनी तरफ सुरसुंदरी को अपलक निहारते हुए देखकर धनवती शरमा गयी... सुरसुंदरी को अपने उत्संग से अलग करती हुई बोली : 'बेटी, दंत धावन कर ले फिर हम साथ दुग्धपान करेंगे।' सुरसुंदरी ने दंत धावन किया और धनवती के साथ दुग्धपान किया। धनवती ने दुग्धपान करते हुए कहा : बेटी, तू रोजाना परमात्म-पूजन करती है न?' 'हाँ, माँ!' सुरसुंदरी के मुँह में से स्वाभाविक ही 'माँ' शब्द निकल गया... धनवती तो 'माँ' संबोधन सुनकर हर्ष से भर उठी। 'बेटी, तू मुझे हमेशा 'माँ, कहकर ही बुलाना...! मेरा अमर भी मुझे 'माँ' ही कहता है।' सुरसुंदरी तो इस स्नेहमूर्ति के समक्ष मौन ही रह गयी। उसे शब्द नहीं मिले... बोलने के लिए। ___ 'हाँ, तो, मैं यह कह रही थी कि हम दोनों साथ ही परमात्म-पूजन के लिए चलेंगे। तुझे अच्छा लगेगा न!' 'बहुत अच्छा लगेगा माँ! मुझे तो तू ही अच्छी लग गयी है... एक पल भी दूर नहीं जाऊँ।' 'चल, हम स्नान वगैरह से निपट लें।' सास एवं बहू! जैसे माँ और बेटी! स्नेह का सेतु रच गया। अपने सुख की कोई परवाह नहीं। माँ बहू के सुख को बढ़ाने का सोच रही है... बहू माँ को ज्यादा से ज्यादा सुख देने का सोच रही है। दोनों का प्रेम वही दोनों का सुख । पूजन, भोजन... स्नेही मिलन... इत्यादि में ही दिन पूरा हो गया। कब सूरज पूरब से पश्चिम की गोद में ढल गया, और क्षितिज में डूब गया... पता ही नहीं लगा। दीयों की रोशनी से हवेली झिलमिला उठी। एक-एक कमरे में रत्नों के दीये जल उठे। धनवती ने सुंदरी को उसके शयनकक्ष में भेजा। जाती हुई For Private And Personal Use Only
SR No.009637
Book TitlePrit Kiye Dukh Hoy
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptasuri
PublisherMahavir Jain Aradhana Kendra Koba
Publication Year2009
Total Pages347
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size2 MB
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