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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 34 Adeva . u. xix.SEastihistra -HACKERAP acssana. १ ६. काश! मैं राजकुमारी न होती!! Menity THE .1562 x ...-----.. .... .. ternywarmaceuxxerritam . . " ra . सुबह का प्रथम बीत चुका था। सुरसुंदरी प्राभातिक कार्यों से निवृत्त होकर, उपाश्रय में जाने की तैयारी करने लगी। दासी को भेजकर रथ तैयार करवाया और माता की इज़ाज़त लेकर, रथ में बैठकर वह उपाश्रय पहुंची। विधिपूर्वक उसने उपाश्रय में प्रवेश किया। 'मत्थएण वंदामि' कहकर मस्तक पर अंजलि जोड़कर आचार्यश्री को प्रणाम प्रणिपात करके, पंचांग प्रणिपात करके, उसने विधिवत् वंदना की। आचार्यश्री की अनुमति लेकर, वस्त्रांचल से भूति का प्रमार्जन करके वह विवेकपूर्वक बैठी। 'तेरी माँ का संदेश मिल गया था। तू योग्य समय पर आई है। अभी अमरकुमार भी आएगा... उसका भी यही समय है अध्ययन के लिये आने का ।' सुरसुंदरी की नज़र द्वार की तरफ गई। अमरकुमार ने उसी समय उपाश्रय में प्रवेश किया... और गुरूदेव को वंदना की...| सुरसुंदरी को प्रणाम किया... सुरसुंदरी ने भी प्रणाम का जवाब प्रणाम कर के दिया। अमरकुमार अपनी जगह पर बैठा। गुरूदेव ने अमरकुमार से कहा, 'अमर, आज सुरसुंदरी 'अनेकांतवाद समझने की जिज्ञासा से आई है। हालाँकि तुझे तो अनेकांतवाद का विशद बोध प्राप्त हो ही चुका है, फिर भी तुझे सुनने में आनंद आयेगा और विषय विशेष रूप से स्पष्ट होगा।' _ 'अवश्य गुरूदेव! आपके श्रीमुख से पुनः अनेकांतवाद की विवेचना सुनने में मुझे बहुत आनंद आएगा। अमरकुमार ने सुरसुंदरी के सामने देखा और कहा। 'गुरूदेव के मुख से इस विषय को सुनना भी एक अनूठा आनंद है, सुंदरी!' 'गुरूदेव की कृपा से मैं इस विषय को भलीभाँति समझ पाऊँगी। मुझे अत्यंत आह्लाद हो रहा है!' दोनों की निगाहें आचार्यदेव की ओर स्थिर हुई। आचार्यदेव ने विषय का प्रारंभ धीर-गंभीर स्वर में किया : 'इस विश्व में दो तत्त्व हैं। जीव और जड़ | जीव अनंत हैं, तो जड़ द्रव्य भी For Private And Personal Use Only
SR No.009637
Book TitlePrit Kiye Dukh Hoy
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptasuri
PublisherMahavir Jain Aradhana Kendra Koba
Publication Year2009
Total Pages347
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size2 MB
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