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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २६ शिवकुमार साध्वियों से कहा : 'आँखें खोलो, खड़ी हो... और उस जाते हुए शेर को देखो।' जाओ। 'अद्भुत... वाकई अद्भुत' - सुरसुंदरी बोल उठी। उसने कहा : 'ऐसा कोई दूसरा अनुभव? बस, फिर ज्यादा नहीं पूछूगी... दूसरा अनुभव सुनकर चली जाऊँगी... फिर आपका समय नहीं लूंगी।' साध्वीजी के चेहरे पर स्मित तैर आया । राजकुमारी के भोलेपन पर उनका वात्सल्य छलक पडा। 'सुंदरी, तुझे दूसरा स्वानुभव सुनना है न, सुन, एक समय की बात है। हम मात्र चार साध्वियाँ ही एक गाँव से विहार करके दूसरे गाँव की ओर जा रहीं थीं। रास्ता भूल गयीं। भटक गयीं। सूरज डूब गया... रात घिरने लगी... भयानक जंगल था... अब तो रात जंगल में ही गुज़ारना पड़े, वैसी परिस्थिति पैदा हो गयी। इधर-उधर निगाहें डालीं तो एक झोंपड़ी नज़र आयी । हम गये उस झोंपड़ी के पास... खाली थी झोंपड़ी | पर न तो कोई दरवाज़ा था... न खिड़की थी। मात्र छप्पर था। हमने वहीं पर विश्राम करना तय किया । आवश्यक क्रियाएँ करके हम सभी बैठीं।' 'आपको डर नहीं लगा?' सुरसुंदरी ने बीच में ही सवाल किया । 'डर? दूसरे जीवों को अभय देनेवालों को भय कैसा? डर कैसा? और फिर हमारे हृदय में तो महामंत्र नवकार था... फिर डर किस बात का? अलबत्ता, ऐसी सुनसान जगह पर हमें सोना नहीं था। हम सारी रात जगते रहें और महामंत्र का स्मरण करते रहें। __मध्यरात्रि का समय हुआ... और आठ-दस आदमी बातें करते-करते हमारी झोंपड़ी की तरफ आते दिखें । उनको देखा तो वे डाकू जैसे लग रहे थे। हम सभी श्री नवकार महामंत्र के ध्यान में लीन हो गयीं। डाकू हमारी झोंपड़ी के निकट आ गये थे। हमारे श्वेत वस्त्र देखकर एक डाकू बोलाः । 'कौन है झोंपड़ी में?' हमने जवाब नहीं दिया। उसने दूसरी बार आवाज लगाई। हम मौन रहे और तीसरी बार उसने पूछा ही था कि इतने में तो तबड़क... तबड़क करते हुए घोड़ों के टाप की आवाज सुनायी दी। दूसरा डाकू बोला : 'अरे... भागो यहाँ से! यह तो घुड़सवार आते लगते हैं...' और डाकू वहाँ से भाग गये। For Private And Personal Use Only
SR No.009637
Book TitlePrit Kiye Dukh Hoy
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptasuri
PublisherMahavir Jain Aradhana Kendra Koba
Publication Year2009
Total Pages347
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size2 MB
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