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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir नदिया सा संसार बहे २९४ 'जी हाँ, मैं तो चंपानगरी तक आनेवाला हूँ।' 'और चंपानगरी में हमारा आतिथ्य स्वीकार करके वापस लौटना है ना?' 'किस के लिए अब यहाँ वापस आना है, देवी? दुनिया में एक मेरी माँ थी... उसका भी कुछ दिन पूर्व ही स्वर्गवास हो गया।' तुम्हें तो यहाँ पर महाराजा की सेवा में रहना है ना?' 'महाराजा के पास तो मुझसे भी बढ़कर के श्रेष्ठ वीरपुरुष हैं। देवी, मेरा मन तो चंपानगरी में ही रहना चाहता है, यदि महाराजा अनुज्ञा दें तो!' 'ठीक है, वहीं रह जाना मृत्युंजय, परंतु जब गुणमंजरी को यहाँ आना हो तब तू उसे लेकर आना।' 'आपकी आज्ञा मैं सहर्ष स्वीकार करता हूँ।' मृत्युंजय की प्रसन्न मुखमुद्रा देखकर सुरसुंदरी की आंखों में आँसू आ गये। 'कल सबेरे प्रयाण का मुहूर्त है, मृत्युंजय!' अमरकुमार ने कहा। मुहूर्त का ध्यान रखेंगे। संध्या के समय यदि आप पधारकर जरा निगाह डाल दें, तो...।' सारी तैयारियाँ हो चुकी थी। मालती और उसका पति भी तैयार हो गये थे। सबेरा हुआ। सुरसुंदरी और गुणमंजरी को बेनातट नगर के प्रजाजनों ने आँसू-भरे भाव से बिदा किया। दिल की अथाह गहराइयों की शुभच्छाएँ दीं। बिदाई की घड़ी में गुणमंजरी माँ से लिपट गयी। सुरसुंदरी ने राजा-रानी को प्रणाम किया। राज्य फिर राजा को सुपुर्द कर दिया। सभी जहाज में बैठे। 'जल्दी वापस आना... हमें भूल मत जाना... तुम्हें हम नहीं भूल पाएँगे... बेनातट को भुलाना नहीं... हमें याद करना... हम तुम्हारी राह देखेंगे... आना... लौट आना... जल्दी-जल्दी आना...' के अश्रुपूरित स्वर उभरने लगे और जहाज़ों ने लंगर उठाया... जहाज़ गतिशील हो गये। राजा-रानी अपने ज़िगर के टुकड़े को दूर-सुदूर जाते देखकर अपने आप पर काबू नहीं रख सके | दोनों बेहोश... गिर पड़ें। इधर जहाज़ में गुणमंजरी की चीख दबी-दबी-सी उभरी। रुमाल हिलते रहे। हाथ हिलते रहे। दूर-दूर समुद्र के क्षितिज में जैसे जहाज़ समा गये!! For Private And Personal Use Only
SR No.009637
Book TitlePrit Kiye Dukh Hoy
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptasuri
PublisherMahavir Jain Aradhana Kendra Koba
Publication Year2009
Total Pages347
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size2 MB
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