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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बिदाई की घड़ी आई २८४ 'तुम महान हो... बारह - बारह साल से पति के विरह की आग में जलती रही हो... अब जब उनका मिलन हुआ है, तब तुम अपना सुख मुझे देने को तैयार हो गयी हो... । नहीं... नहीं... यह नहीं हो सकता ! मैं इतनी स्वार्थी कैसे होऊँगी? हाँ... मैं तुम्हें छोडूंगी तो नहीं... ठीक है... तुम्हारा रूप बदला है न? तुम्हारी आत्मा तो वही है न? पत्नी के रूप में नहीं तो भगिनी के रूप में तुम्हारी सेवा करूँगी... रोज तुम्हारे दर्शन तो कर लूँगी...। 'मंजरी, क्या पगली की-सी बातें कर रही है... मैं तुझे अपना कौन-सा सुख दे रही हूँ जो तू इतना सोच रही है? मैं अमरकुमार को बचपन से जानती हूँ... । वह हम दोनों को समान दृष्टि से देखेंगे। तेरे साथ शादी करने के बाद मेरा त्याग नहीं करेंगे। और फिर तुझे मालूम है ? तुझे सुखी देखकर मेरा सुख कितना बढ़ जाएगा....!! हम दोनों एक साथ जिएँगे... । तूने अभी उनको देखा कहाँ है? तू उन्हें देखेगी तो शायद मुझे भी भूल जाएगी...!! ' 'तुम्हें भूलूँ? इस जनम में तो क्या ... जनम-जनम तक तुम्हें नहीं भुला सकूँगी...। तुम तो मेरे मनमंदिर के देव हो! रूप बदला तो क्या फर्क पड़ता है...? मैंने तो प्यार तुम्हारी आत्मा से, तुम्हारे अस्तित्व से किया है न? मेरा प्रेम शाश्वत रहेगा । ' 'तब मेरी बात कबूल है ना?' 'तुम कहो और मैं नहीं मानूँ? मैं अस्वीकार करूँ तुम्हारी बात ? ऐसा हो सकता है क्या? कभी नहीं! त्रिकाल में भी ऐसा नहीं हो सकता है!' गुणमंजरी सुरसुंदरी से लिपट गयी... सुरसुंदरी की आँखें खुशी के आँसुओं से छलछला उठीं । गुणमंजरी सुरसुंदरी के उत्संग में अपने दिल की उमड़ती-उफनती भावनाओं को आसुओं के रुप में बहाने लगी...! गुणमंजरी सुरसुंदरी में प्रेम-सहनशीलता और जीवंत त्याग की त्रिवेणी महसूस करने लगी...। सुरसुंदरी गुणमंजरी में अपना ही दूसरा रूप पाने लगी ! देह और व्यक्तित्व के उस पार के असीम - अथाह अस्तित्व में दोनों खो गयीं... रम गयीं... डूब गयीं...!!! For Private And Personal Use Only
SR No.009637
Book TitlePrit Kiye Dukh Hoy
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptasuri
PublisherMahavir Jain Aradhana Kendra Koba
Publication Year2009
Total Pages347
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size2 MB
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