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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २०८ सवा लाख का पंखा 'अब तुम्हे स्नान करना होगा न?' 'नहीं... स्नान तो मैंने कर लिया है... मैं अब नगर में जाऊँगा परिभ्रमण के लिए । मध्यान्ह में वापस आ जाऊँगा।' 'तुम आओगे तब-तक भोजन तैयार हो जाएगा।' 'बाजार में से यदि कुछ लाना हो तो लेता आऊँ!' 'नहीं रे बाबा... ऐसी कोई चिंता तुम्हें थोड़े ही करनी है? यदि तुम्हें कुछ चाहिए तो मुझे कहना, मैं ला दूंगी। तुम तो इस नगर में पहले-पहले ही आये होगे ना?' 'हाँ... मैं तो पहली ही बार आया हूँ।' 'तो फिर मैं आती हूँ तुम्हारे साथ नगर में!' 'नहीं, कोई ज़रूरत नहीं है, तुम भोजन बनाना । मैं तो घूमकर वापस आ जाऊँगा... पर तुम्हारा नाम तुमने बताया ही नहीं? मैं भी कैसा हूँ... नाम भी नहीं पूछा!' 'मेरा नाम है मालती!' 'बहुत अच्छा नाम है...!' विमलयश ने जरूरी मुहरें पेटी में से निकाल ली। दोनों पेटियों को बंद करके रख दिया और खुद नगर की तरफ चला। विमलयश को जो पहला कार्य करना था, वह नये वस्त्र खरीदना था। बाजार में जाकर उसने बढ़िया कपड़े खरीद लिये। मालिन के लिए भी सुंदर कपड़ों का जोड़ा ले लिया। वापस वह लौटकर बगीचे में आ गया। दोपहर के समय उसने भोजन किया । भोजन करवाते वक्त मालिन ने जान लिया कि विमलयश को कैसा भोजन अच्छा लगता है! विमलयश को लगा कि मालिन कार्यकुशल है, साथ ही चतुर भी है।' 'मालती, ये कपड़े तुम्हारे लिए लाया हूँ, तुम्हे पसंद आएँगे ना?' विमलयश ने मालती को नये कपड़े दिये। मालती की आँखें चौड़ी हो गयीं। 'अरे... राजकुमारजी, तुम तो कोई राजकुमारी पहने वैसे कपड़े ले आये हो। इतने क़ीमती कपड़े मेरे लिए नहीं चाहिए | मैं इन्हें पहनूँ भी कैसे?' 'देखो, मुझे तो अच्छे कपड़े ही भाते हैं... मेरे लिए या औरों के लिए! तुम्हें पहनना ही होगा।' For Private And Personal Use Only
SR No.009637
Book TitlePrit Kiye Dukh Hoy
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptasuri
PublisherMahavir Jain Aradhana Kendra Koba
Publication Year2009
Total Pages347
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size2 MB
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