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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रीत किये दुख होय १८७ विमान में थाम लिया था। उसके करूणतापूर्ण हृदय ने उसको पकड़वा लिया था - ‘दूसरे के दुःखों को दूर करने की इच्छा एवं प्रवृत्ति जीवात्माओं के साथ सच्ची मैत्री हैं...' यह सत्य उसने आत्मसात् कर लिया था। उसने सुरसुंदरी के दुःख दूर किया, उसे भरपूर सुख दिया । उसकी तरफ से किसी भी तरह की सुख को पाने की अपेक्षा नहीं रखी थी। दुनिया में एक उच्चतम स्तर का भाई अपनी सहोदरा बहन को जितना और जैसा सुख देगा... उतना और वैसा सुख उसने सुरसुंदरी को दिया था । उसके मन में कभी-कभी यह सवाल उभरता था कि कि 'जिससे मेरा कोई संबंध नहीं है... कोई परिचय नहीं है... कोई स्वार्थ भी नहीं है क्यों मैं उसे अपने महल में ले आया... क्यों मैंने उसे अपने महल में रखा ? क्यों उससे इतना नजदीकी रिश्ता हो गया ? क्यों वह मुझे आत्मीया लगने लगी । नंदीश्वर द्वीप की यात्रा करवाकर उसे क्यों मैंने वह जहाँ जाना चाहती थी... वहाँ पर पहुँचाया नहीं। एक अपरिचित यौवना के प्रति क्यों इतना और ऐसा बड़ा आकर्षण जग उठा है? ठीक है, उससे आकर्षण का माध्यम उसके गुण हैं... पर मुझे उससे क्या लेना-देना? मैं तो अपनी समग्रता से उसको चाहने लग गया हूँ। मेरी रानियाँ भी उसके साथ आत्मीयता बाँध बैठी हैं... क्यों ? आखिर किसलिए ? किसी भी प्रयोजन के बगैर क्या ऐसे संबंधों के फूल खिल सकते हैं? तो क्या गत जन्म-जन्मांतर के किन्ही संबंधों के संस्कार जग उठे हैं? हाँ, फिर उसमें वर्तमान जीवन के नाम या परिचय की ज़रूरत नहीं रहती है... उसमें किसी दैहिक रूप या लावण्य की भी आवश्यकता नहीं रहती है। ज़रूर... कुछ जन्म... जन्मांतर के ही संस्कार जगे हैं । ' इस तरह रत्नजटी स्वयं ही अपने मन के प्रश्नों का उत्तर दिया करता है । जीवन में काफी कुछ अनचाहा - अनसोचा हो जाता है। यह भी एक अनसोची घटना थी। हालाँकि, पूर्णज्ञानी पुरूषों की दृष्टि में तो कुछ भी अनसोचा या अचानक नहीं होता है । अनसोचा और सोचा हुआ... यह सब तो मनुष्य की कल्पनाएँ हैं। नंदीश्वर द्वीप से वापस लौटते हुए रत्नजटी ने कहाँ सोचा था कि आकाश में से एक मनुष्य स्त्री को गिरती हुई पकड़ लेगा..... उसे वह अपने महल में ले आएगा । और छह महिने बीत गये । एक दिन मध्यान्ह के समय चारों रानियाँ सुरसुंदरी के साथ चौपड़ खेल रही थी। खेल काफी जम गया था। समय एवं परिस्थिति के उस पार जाकर For Private And Personal Use Only
SR No.009637
Book TitlePrit Kiye Dukh Hoy
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptasuri
PublisherMahavir Jain Aradhana Kendra Koba
Publication Year2009
Total Pages347
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size2 MB
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