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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रीत किये दुख होय १८५ adka. NEM izamata. sa.studies sessistinka { २८. प्रीत किये दुःख होय! BY 2 5 2 4 NEE'XNHere' remamarMHENNIAxertrain ------....--- सुरसुंदरी को सुरसंगीत नगर में आये हुए छह महिने बीत गये । रत्नजटी के परिवार के साथ उसके आत्मीय संबंध बँध चुके थे। रत्नजटी के साथ, उसकी चारों रानियों के साथ उसने अनेक तीर्थों की यात्राएँ की थी। यात्राप्रवास में रत्नजटी के साथ तरह-तरह की धर्मचर्चातत्त्वचर्चा होती रहती थी। रोज़ाना रत्नजटी को भोजन करवाते वक्त भी रत्नजटी के साथ अनेक प्रकार के विषयों पर वार्तालाप होता था। रत्नजटी मुक्त मन से बातें करता था, उसका मन स्वच्छ था, सरल था। उसके हास्य में भी निरी निर्दोषता छलकती थी। उसकी आँखों में से निश्छल स्नेह की सरिता बहती थी। उसका मन सदैव सुरसुंदरी के गुणों का मनन, चिंतन किया करता था। करीब एक वर्ष से पति का विरह सहन करती हुई सुरसुंदरी ने अपने शील की रक्षा बड़ी हिम्मत एवं पूरी निष्ठा से की थी। रत्नजटी कभीकभी सुरसुंदरी के जीवन में आये हुए दुःख के झंझावत के विचारों में गुमसुम हो जाता था। सुरसुंदरी के प्रति तीव्र सहानुभूति से उसका हृदय भर आता! जब-जब उसकी स्मृति में पिता मुनि के वचन याद आते... उसका सिर अहोभाव से सुरसुंदरी के चरणों में झुक जाता! राजा रत्नजटी युवक था। परंतु उसमें यौवन का उन्माद बिलकुल नहीं था। वह पराक्रमी था... पर अविवेकी नहीं था। अपने महान पितृकुल की उज्वल कीर्ति को ज़रा भी दाग न लग जाए, इसके लिए वह पूरी सतर्कता रखते हुए जीता था | वचन-पालन का वह अत्यंत पक्षपाती था । उसने सुरसुंदरी को जो वचन दिया था, वह उसकी स्मृति में बराबर सुरक्षित था। निर्बल एवं अस्थिर व्यक्ति का वचन पानी पर खींची हुई रेखा-सी होती है... पराक्रमी एवं संस्कारी व्यक्ति का वचन पत्थर की लकीर-सा होता है। उसने सुरसुंदरी से कहा था : 'मैं तुझे वचन देता हूँ... तुझे मैं अपनी बहन मानूँगा... तू याद रखना... मैं एक महान् मुनि पिता का पुत्र हूँ।' छह-छह महिनों से रत्नजटी अपने वचन को सुविशुद्ध रूप में पालन कर रहा था । मन-वचन-काया से वह वचन निभा रहा था। उसके मन में सुरसुंदरी के प्रति वैचारिक विकार की रेखा भी नहीं जगी थी कभी। अलबत्ता, उसकी जीवनसंगिनी चार-चार रानियाँ जो कि रूप-लावण्य एवं गुणों से संपन्न थी... उसके पास थी। परंतु वैसे तो रावण के अंत:पुर में कहाँ कम रानियाँ थीं? For Private And Personal Use Only
SR No.009637
Book TitlePrit Kiye Dukh Hoy
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptasuri
PublisherMahavir Jain Aradhana Kendra Koba
Publication Year2009
Total Pages347
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size2 MB
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