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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भीतर का शृंगार १८२ 'कौन आया है?' पुरोहित ने पूछा। 'सेनापति।' 'क्या? सेनापति? अभी यहाँ कैसे? हाय... अब मेरा क्या होगा? मुझे बचा तू किसी भी तरह!' 'पर, मैं कैसे बचाऊँ?' कुछ भी कर... कहीं पर भी मुझे छिपा दे... मुझे तू बचा, मेरी माँ!' 'तो ऐसा कर... इस पिटारे में घुस जा...!!' पुरोहित को पिटारे के एक खाने में उतारकर ऊपर से दरवाजा बंद करके ताला लगा दिया! हवेली का दरवाजा खोला... सेनापति का स्वागत किया... सेनापति भी कीमती रत्न लेकर आया था... श्रीमती ने रत्न लेकर तिजोरी में रख दिया । और फिर सेनापति की सेवा-भक्ति चालू कर दी... बातों ही बातों में दूसरा प्रहर पूरा हो गया...! और हवेली के दरवाज़े पर दस्तक हुई। सेनापति घबराया... 'ओह! इस वक्त कौन आया होगा?' श्रीमती दरवाज़े पर जाकर वापस आयी... 'महामंत्री आये हैं...' 'बाप रे... अब? मुझे छिपने की जगह बता... मैं बे मौत मर जाऊँगा... हवेली में कहीं पर भी छुपा दे...' श्रीमती ने सेनापति को पिटारे में छिपाकर ताला लगा दिया। हवेली का दरवाजा खुला। महामंत्री का आगमन हुआ। स्वागत हुआ। महामंत्री श्रीमती को उपहार के रूप में देने के लिए नौलखा हार लाये थे। श्रीमती ने हार लेकर तिजोरी में रख दिया एवं महामंत्री की चापलूसी करना चालू किया । एक प्रहर तक इधर-उधर करके समय बिताती रही... चौथे प्रहर का प्रारंभ हुआ और दरवाज़ा खटखटाया गया। ठक ठक... महामंत्री चौंक उठा... कौन होगा?' श्रीमती दरवाज़े तक जाकर आयी और कहा : 'महाराजा स्वंय पधारे हैं।' 'महाराजा? यहाँ पर? अभी? मैं मारा जाऊँगा! अब कहाँ जाऊँ? क्या करूँ? ऐसा कर तू मुझे छिपने की जगह बता दे... मैं तेरे पैरों पड़ता हूँ! कुछ भी कर!' श्रीमती ने महामंत्री को पिटारे के तीसरे खाने में उतारा और उसे बंद करके ताला लगा दिया। For Private And Personal Use Only
SR No.009637
Book TitlePrit Kiye Dukh Hoy
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptasuri
PublisherMahavir Jain Aradhana Kendra Koba
Publication Year2009
Total Pages347
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size2 MB
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