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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १७१ भाई का घर 'हम तो अभी-अभी ही आयी हैं... तुम्हारी नींद में विक्षेप पड़ा ना?' ___ 'नहीं... बिलकुल नहीं! मैंने तो पूरी नींद ली है... एकाध प्रहर तो बीता ही होगा।' 'हाँ... एक प्रहर बीत गया... बाद में ही हम ऊपर आयी... तुम्हारी थकान तो दूर हो गयी है ना?' ___ 'श्रम तो मेरा तभी दूर हो गया था, जब पहल- पहल तुम्हें महल के दरवाजे पर देखा था। कितनी प्यारी-प्यारी हैं मेरी चारों भाभियाँ? मेरे भाई का पुण्य सचमुच श्रेष्ठ है, जो तुम-सी गुणवती भाभियाँ...' एक रानी ने सुरसुंदरी के मुंह पर अपनी हथेली दबाकर उसे रोका : 'हमें शरमाओं मत बहन! तुम्हारे भाई पुण्यशाली तो है ही... वरना महासती जैसी तुम-सी बहन कैसे मिलती? ___ 'यानी की अब तुम सब मिलकर मुझे शरमाना चाहती हो। अरे बाबा! हम सब पुण्यशाली हैं... अन्यथा परमात्मा जिनेश्वर देव का धर्म हमें नहीं मिलता! ऐसा अपूर्व मनुष्य जीवन नहीं मिलता! इतने अच्छे, स्नेही-स्वजन नहीं मिलते। और अचिन्त्य चिन्तामणि समान श्री नवकार मंत्र नहीं मिलता!' 'बहन, यह 'पुण्य' क्या है?' एक रानी ने जिज्ञासा व्यक्त की। 'पुण्य कर्म है... बयालीस प्रकार हैं इस पुण्यकर्म के, हर एक पुण्यकर्म अलग-अलग सुख देता है।' 'पुण्यकर्म का काम सुख ही देना है?' 'हाँ... जीवात्मा मन से अच्छे विचार करे... अच्छी वाणी बोले... एवं सत्कार्य करे... इससे पुण्यकर्म बंधता है... वह पुण्य कर्म जब उदित होता है तब जीव को सुख देता है। जीव को सुख प्राप्त होता है... I' ___ 'पर... जीवात्मा हमेशा तो शुभ विचार या शुभ वाणी व क्रिया कर्म जब उदय में आते हैं तब जीवात्मा को दुःख देते हैं... जीवात्मा दुःखी होता है। 'इस पाप कर्म के भी अलग-अलग प्रकार होंगे ना?' दूसरी रानी ने जिज्ञासा व्यक्त की। 'बिलकुल, पाप कर्म के बयासी प्रकार हैं, बड़े-बड़े प्रकार हैं बयासी! बाकी वैसे तो अनंत प्रकार हैं।' 'यह पुण्यकर्म या पापकर्म दिखते हैं या नहीं?' For Private And Personal Use Only
SR No.009637
Book TitlePrit Kiye Dukh Hoy
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptasuri
PublisherMahavir Jain Aradhana Kendra Koba
Publication Year2009
Total Pages347
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size2 MB
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