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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १४३ आदमी का रूप एक सा! 'कोई बात नहीं... मैंने पर्याप्त आराम कर लिया है...।' सुरसुंदरी ने शांति से भोजन किया। उसने परिचारिका से पूछा : 'अरे, मैंने तेरा नाम तो पूछा भी नहीं। तूने बताया नहीं...| तू कितनी अच्छी परिचारिका है... मेरे जैसी अनजान के साथ भी सलीके से बोलती है... बात करती है।' अपनी प्रशंसा सुनकर परिचारिका शरमा गई... वह बोली : 'मेरा नाम रत्ना है।' 'रत्ना, तेरी महारानी का क्या नाम है?' 'मैं खुद ही बता दूँगी वह नाम... सुरसुंदरी।' मदनसेना को खंड में आती देख परिचारिका सकपका गई। 'मेरा नाम मदनसेना है... सुंदरी।' चेहरे पर स्मित को बिखरेती हुई मदनसेना पलंग पर बैठी। सुरसुंदरी मदनसेना के सामने देख रही थी। रत्ना भोजन की खाली थाली लेकर कमरे में से बाहर निकल गयी थी। 'आपका दर्शन करके मुझे आनंद हुआ ।' सुरसुंदरी ने बात शुरूआत की। 'अतिथि की कुशलता पूछने के लिए तो आना ही चाहिए न?' चाहे तु निराधार अबला हो... पर आज तो राजमहल की मेहमान हो।' 'यह तो आपकी उदार दृष्टि है... वरना, निराधार नारी को आश्रय दे भी कौन, महारानी?' 'तेरी बातें... तेरे बोलना के ढंग... इससे मुझे लगता है कि तू किसी ऊँचे घराने की स्त्री है। मेरा अनुमान सही है या गलत? सच कहना तू।' ___ 'आप सही हैं... देवी! मेरे पिता राजा हैं... और मेरे पति एक धनाढ्य श्रेष्ठी 'तो फिर तू निराधार हुई कैसे? यहाँ कैसे आ पहुँची? यदि तुझे एतराज़ न हो तो मुझे सारी बात बता।' सुरसुंदरी ने अपनी सारी जीवन-कहानी कह सुनायी मदनसेना से | सुनतेसुनते मदनसेना ने कई बार अपनी आँखें पोंछी... सुरसुंदरी के प्रति हार्दिक सहानुभूति व्यक्त करते हुए उसने कहा : 'बहन... तेरे शील को बचाने के लिए तू सरोवर में कूद गयी... कितना साहस है तुझमें? शीलरक्षा के लिए तूने कितने कष्ट उठाये...? और तू यहाँ कैसे For Private And Personal Use Only
SR No.009637
Book TitlePrit Kiye Dukh Hoy
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptasuri
PublisherMahavir Jain Aradhana Kendra Koba
Publication Year2009
Total Pages347
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size2 MB
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