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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ११६ फिर वही हादसा वह कूद पड़ी थी। जिसमें धनंजय ने अपने जहाज़ों के साथ जलसमाधि ली थी। सुरसुंदरी के लिए जैसे वह घटना एक सपना हो चुकी थी। वह दृश्य आँखों के आईने में उभरते ही वह काँप उठी। 'यह व्यापारी भी मेरे लिए अपरिचित है... इसकी नीयत अच्छी नहीं लगती। इसकी आँखों में हवस है... अलबता, इसने मेरी सारसंभाल की है। पर यह भी मेरी जवानी का आशिक तो होगा ही। क्या औरत की जवानी, यानी पुरूषों की वासना तृप्त करने की भोग्य वस्तु मात्र है? नहीं! यह मुझे छए, इससे पहले तो मैं कूद गिरूँगी, इसी समुद्र में! अब मुझे सागर का डर नहीं है... सागर ही मेरी अस्मत को बचाएगा।' अचानक उसने पीछे घूमकर देखा तो पाया कि फानहान दरवाजे पर खड़ा उसकी तरफ ताक रहा है। वह युवा था... सुंदर था... छबीला था। 'सुंदरी, यहाँ तुझे किसी तरह की दिक्कत तो नहीं है न?' 'नहीं! आप मेरी इतनी देखभाल जो कर रहे हैं... फिर असुविधा क्या होगी? पर आप मुझे बताएँगें, हम कहाँ जा रहे हैं?' 'सोवनकुल की ओर!' 'सिंहलद्वीप यहाँ से कितना दूर है?' 'सोवनकुल से भी काफी दूर है सिंहल तो! वहाँ जाने में तो एक महीना लग ही जाए।' 'आप सोवनकुल तक ही जाएगें?' 'वैसे तो सोवनकुल तक ही। पर तेरी इच्छा होगी तो सिंहलद्वीप भी चलेंगे। पर सिंहलद्वीप क्यों जाना है? वहाँ तेरा कौन है?' 'मेरे पति वहाँ गये हैं... मुझे उनके पास जाना है।' फानहान मौन रहा। सुरसुंदरी के लावण्य को निहारता रहा। उसका मन बोल उठा : 'मैं तुझे नहीं जाने दूँगा तेरे अपने पति के पास! मैं ही तेरा पति बनूँगा! अब तो तू मेरे अधीन है... मैं तुझे कहीं जाने नहीं दूंगा।' 'आप यदि वहाँ तक नहीं आ सकते तो फिर मैं दुसरे किसी जहाज़ में अपना इन्तजाम कर लूँगी। आप परेशान न हों।' 'इसकी फिकर तू मत करना । तू इसी जहाज़ में आनंद से रहना।' फानहान ने एक परिचारिका को सुरसुंदरी के सेवा में छोड़ दिया एवं खुद अपने कक्ष में चला गया। सुरसुंदरी को कैसे मना लिया जाए... इसके उपायों में खो गया। For Private And Personal Use Only
SR No.009637
Book TitlePrit Kiye Dukh Hoy
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptasuri
PublisherMahavir Jain Aradhana Kendra Koba
Publication Year2009
Total Pages347
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size2 MB
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