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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चोर की चतुराई ! महामंत्र की भलाई ! ८९ सेठ ने आँखें खोलकर सामने देखा तो ऊपर राक्षस मंडरा रहा था। नीचे राजा उसके चरणों में लोट रहा था । सेठ की समझ में कुछ आया नहीं । उसने राजा के सामने देखा । राजा दीन-हीन बनकर बोल रहा था : 'सेठ... मेरी रक्षा करो...तुम्हें असीम पुण्य प्राप्त होगा ।' सेठ ने राक्षस से कहा : 'हे देव! कायर आदमी जब भाग जाता है... तब बलवान आदमी को उसका पीछा नहीं पकड़ना चाहिए ।' सेठ का कहना सुनकर रूपादेव ने अपना रूप प्रगट किया। उसने सबसे पहले सेठ को तीन प्रदक्षिणा देकर भावपूर्वक वंदना की। बाद में परमात्मा को और गुरुदेव जो कि वहाँ पर आये हुए थे, उन्हें भक्तिपूर्वक वंदना की । राजा से रहा नहीं गया। वह बोल उठा : ‘स्वर्ग के देव तो बुद्धिशाली और विवेकी माने जाते हैं, पर लगता है अब विवेक वहाँ पर भी नहीं रहा है... वह देव परमात्मा और गुरुदेव को छोड़कर पहले गृहस्थ को वंदना कर रहे है । यह तो देव - गुरु की आशातना ही हुई ना?' रूपादेव ने कहा : 'राजन्, मैं विवेक जानता हूँ। पहले देव को, फिर गुरु को और इसके पश्चात् श्रावक को झूकना चाहिए। इस प्रसिद्ध क्रम की जानकारी मुझे है । परंतु मैंने पहले जिनदत्त सेठ को वंदना की इसका कारण तुम्हें बताता हूँ, वह सुनिये।' रूपा ने यों कहकर सारी घटना सुनायी । राजा तो सुनकर हतप्रभ रह गया । 'रूपा चोर ! जिसको मैंने शूली पर चढ़ाया था...वही यह देव !' राजा ने देव से पूछा : 'ओ देव, आपने किस की प्रेरणा से सेठ के उपकार को याद रखा है?' ‘राजन्, सत्पुरुषों का स्वभाव ही वैसा होता है। वे कृतज्ञ होते हैं। वे औरों के उपकार कभी भूल नहीं सकते हैं । ' राजा ने पूछा : 'देव, इन सेठ ने आप पर किसकी प्रेरणा से उपकार किया था?' देव ने कहा : For Private And Personal Use Only
SR No.009636
Book TitleMayavi Rani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptasuri
PublisherMahavir Jain Aradhana Kendra Koba
Publication Year2009
Total Pages155
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size1 MB
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