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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विद्या विनयेन शोभते ७६ ___ रूपवती ने कहा : 'मैंने तुम्हें वचन दिया था न कि शादी के बाद सीधी तुम्हारे पास आऊँगी। उस वचन को निभाने के लिये आयी हूँ।' माली ने पूछा : 'क्या तेरे पति ने इजाजत दे दी तेरे को?' 'हाँ, मेरी प्रतिज्ञा का भंग न हो... इसलिए उन्होंने इजाजत दे दी।' फिर तो उसने रास्ते में मिले हुए चोर और राक्षस की बात भी की। वह सुनकर माली ने सोचा : 'यह औरत कितनी पक्की है अपने वचन की। इसकी प्रतिज्ञापालन की दृढ़ता से खुश होकर उसके पति ने, चोरों ने और राक्षस ने भी उसे छोड़ दिया तो फिर मैं इसको क्यों परेशान करूँ? यदि मैं इसको सताऊँगा तो भगवान मुझे माफ थोड़े ही करेगा?' माली ने रूपवती को अपनी बहन बनाकर उसे सुंदर कपड़े वगैरह भेंट देकर विदा कर दी। रूपवती खुश होती हुई वहाँ से वापस लौटने लगी। वह जब राक्षस के पास आयी तो राक्षस ने भी आश्चर्य-चकित होकर उसकी प्रतिज्ञापालन की प्रशंसा की और भेंट-सौगात देकर उसे छोड़ दिया। रूपवती वहाँ से चलकर चोरों के पास आयी। चोर भी रूपवती की निर्भयता और वचन-पालन की तत्परता के लिये खुश हो उठे थे। उन्होंने भी रूपवती को ससम्मान अपने पति के पास जाने की इजाजत दी। घर पर आकर रूपवती ने सारी बात अपने पति से कही। उसका पति भी रूपवती पर बड़ा खुश हुआ। उससे बहुत प्रेम करने लगा और दोनों मौज करते हुए आराम से दिन गुजारने लगे। अभयकुमार ने कहानी पूरी करते हुए लोगों से पूछा : 'नगरवासियों, मैं तुम्हे पूछ रहा हूँ...कि रूपवती का पति, वे चोर, वह राक्षस और वह माली, इन चारों में से तुम श्रेष्ठ किसे कहोगे?' एक व्यापारी जवान बोल उठा : रूपवती का पति श्रेष्ठ । एक ब्राह्मण जवान बोला : राक्षस श्रेष्ठ | एक क्षत्रिय बोला : माली श्रेष्ठ । एक चंडाल बोल उठा : चोर श्रेष्ठ । अभयकुमार ने तुरंत चंडाल को पकड़ लिया और उसके हाथों में बेड़ियाँ डाल दी। उसे ले जाकर राजा श्रेणिक के समक्ष खड़ा कर दिया। यह चंड़ाल For Private And Personal Use Only
SR No.009636
Book TitleMayavi Rani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptasuri
PublisherMahavir Jain Aradhana Kendra Koba
Publication Year2009
Total Pages155
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size1 MB
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