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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १४१ पराक्रमी अजानंद ___ 'माँ, कर्मों की गति विचित्र होती है। इसमें पिताजी का कोई दोष नहीं है। मेरे कर्म ही ऐसे थे कि जन्म लेते ही मैं माता-पिता से जुदा हो गया। खैर, जो होना था सो हो गया। अब माँ, तुम्हें यहीं पर राजमहल में मेरे साथ ही रहना है!' गंगा ने हाँ भर दी। इसके पश्चात् उस रोगी औरत को देखकर, तुरंत वैद्यों को बुलवाया। राजवैद्यों ने आकर उस औरत के उपचार चालू किये। राजा ने वैद्यों से कहा : 'यह औरत शीघ्र अच्छी हो जाए इस ढंग से उपचार वगैरह करना।' 'महाराजा, इस औरत की आँतों में ऐसा कोई रोग हुआ है जिसे हम समझ नहीं पा रहे हैं। रोग के जाने बिना औषध दें भी कैसे?' वैद्य अजानंद के साथ बात कर ही रहे थे कि उस औरत को वमन हुआ। वमन में मांस के टुकड़े बाहर निकले। औरत तो मरने जैसी होकर जमीन पर ढेर हो गई। अजानंद ने वैद्यों से कहा : 'तुम से शक्य हो इतने उपचार चालू रखो।' वैद्यों ने उग्र उपचार चालू किये। परंतु इससे वह औरत एकदम बेहोश हो गई। काफी देर तक उपचार करने पर भी उसकी बेहोशी दूर नहीं हुई अजानंद की चिंता का पार न रहा। इतने में महल के रक्षक ने आकर कहा : 'महाराजा, एक परदेशी वैद्यराज आये हैं...और वे आपके दर्शन करना चाहते हैं।' 'शीघ्र ही उन्हें मेरे पास ले आओ।' अजानंद के चेहरे पर चमक उभरी। वह स्वयं खड़ा होकर वैद्यराज को लेने के लिए सामने गया। वैद्यराज आये। अजानंद ने कहा : 'इस औरत को देखिये, उसे अच्छी कर दीजिए...।' वैद्यराज ने औरत को देखा। कुछ देर सोचा और कहा : 'राजन्, यह औरत अच्छी तो हो सकती है परंतु उसकी दवाई...' 'बोलिए...कितनी भी कीमती दवाई होगी...मैं मँगवा दूंगा।' 'महाराजा, बकरी के दूध पर जिसका पालन हुआ हो-वैसे आदमी की जीभ का माँस यदि औरत को दिया जाए तो यह औरत अवश्य निरोगी हो सकती है।' For Private And Personal Use Only
SR No.009636
Book TitleMayavi Rani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptasuri
PublisherMahavir Jain Aradhana Kendra Koba
Publication Year2009
Total Pages155
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size1 MB
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