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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १२८ पराक्रमी अजानंद अजानंद ने उस बंदर से बचा हुआ पानी तभी वापस ले लिया था जब वह आदमी में से बंदर हो गया था। बंदर तो राजकुमारी के पास ही रह गया। अजानंद मगर-नर के साथ उस नगर को छोड़कर आगे बढ़ा। एक जंगल में से दोनों गुजर रहे थे। अचानक अजानंद ने देखा : एक हाथी बड़ी तेजी से दौड़ता हुआ आ रहा था। हाथी पर एक आदमी बेहोश होकर पड़ा हुआ था। अजानंद उस हाथी को पकड़ने के लिए दौड़ा। परंतु हाथी उसकी पकड़ में आये वैसा था नहीं। आखिर दौड़ते-दौड़ते ही अजानंद ने अपनी कमर में बँधा हुआ अग्निवृक्ष के फल का चूर्ण निकाला और भागते हुए हाथी पर फेंका। जैसे ही चूर्ण हाथी पर गिरा...कि तुरंत हाथी आदमी हो गया। हाथी पर पड़ा हुआ आदमी तो जमीन पर गिर गया था। अजानंद गया और समीप के झरने में से पानी लाया । उस बेहोश आदमी पर पानी के छींटे मारे...धीरे-धीरे उसकी बेहोशी दूर हुई। वह होश में आया। अजानंद ने उससे पूछा : 'भाई, तू कौन है?' युवक ने कहा : 'ओ उपकारी वीरपुरुष! मेरी कहानी लंबी है...फिर भी तुम्हें जरुर सुनाऊँगा।' ७. युद्ध और विजय विजया नाम की एक नगरी है। उस नगरी के राजा है महासेन । वे इन्द्र जैसे तेजस्वी एवं अतुल पराक्रमी हैं। उनकी पत्नी शीलवती रानी गुणी एवं पतिव्रता है। मैं उनका पुत्र हूँ। मेरा नाम है विमलवाहन। आज सबेरे मेरा यह हाथी अचानक उन्मत्त हो उठा। मैंने उसे वश में करने की कोशिश की। मैं उसके ऊपर चढ़ कर सवार हो गया। अंकुश मार-मार कर उसको वश में लाने का प्रयत्न किया। पर वह वश में आया नहीं। हाथी तीव्र वेग से दौड़ने लगा। हाथी जैसे यमराज सा हो चुका था। उसे वश में करने की कोशिश करते-करते मैं थक गया...बेहोश होकर ढेर हो गया हाथी पर ही! अच्छा हुआ तुम मिल गये...वरना तो मैं मर ही जाता! तुमने मेरी जान बचा ली।' यों कहते हुए विमलवाहन ने इधर-उधर निगाह दौड़ायी जैसे कि वह कुछ खोज रहा हो! 'राजकुमार, तू किसको खोज रहा है?' 'हाथी को! वह दुष्ट मुझे यहाँ पटक कर कहाँ भाग गया है?' For Private And Personal Use Only
SR No.009636
Book TitleMayavi Rani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptasuri
PublisherMahavir Jain Aradhana Kendra Koba
Publication Year2009
Total Pages155
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size1 MB
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