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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पराक्रमी अजानंद ९२ बड़े बेटे शिव ने कहा : 'माँ, तू रो मत | हम दोनों भाई आज ही पढ़ाई करने के लिये रवाना होकर मथुरा जायेंगे। वैद्यशास्त्र और ज्योतिषशास्त्र में विद्वान होकर आयेंगे। फिर राजसभा में हमारे पिताजी का नाम रोशन करेंगे।' माँ बड़ी खुश हो उठी। उसने दोनों बेटों को मुँह मीठा करवाया। ललाट पर तिलक किया...आरती उतारी...और विदाई दी। शिव बड़ा था, जीव छोटा था। दोनों भाई मथुरा पहुंचे। वहाँ वैद्यशास्त्र और ज्योतिषशास्त्र का अध्ययन चालू किया । सात साल तक अध्ययन किया। दोनों पंडित बन गये। गुरू कि इजाजत लेकर दोनों काशी आने के लिए निकले। रास्ते में एक भयंकर जंगल आया। जंगल में उन्होंने एक मरा हुआ शेर देखा। शिव ने जीव से कहा : 'जीव, अपने पास जो 'मृतसंजीवनी' विद्या है, उसका इस शेर पर प्रयोग करके इसे जिन्दा कर दें तो?' ___ 'भैया, हम घर पर जाकर विद्या का प्रयोग करेंगे। यहाँ पर नहीं करना है...' जीव ने कहा। __परन्तु शिव जिद्दी और कुछ नासमझ भी था। उसने कहा : 'नहीं नहीं...यहीं पर...इस शेर पर ही इसका प्रयोग करना है!' जीव तो पास के पेड़ पर चढ़ गया। शिव ने एक गुटिका थेले में से निकाली और 'मृतसंजीवनी' विद्या का स्मरण किया। वह स्वयं शेर के सामने आकर बैठ गया। उसने गुटिका शेर की आँखों में लगायी। उसी क्षण शेर जिन्दा हो उठा। उसने गर्जना की...और छलांग लगाकर हमला कर दिया। शिव को मार डाला और वहीं पर उसे खा गया। शेर वहाँ से उठकर दुम पटकता हुआ वहाँ से चला गया। जीव धीरे से सम्हलता हुआ पेड़ पर से नीचे उतरा। शिव का थैला लेकर वह फटाफट वहाँ से चलने लगा। घर पर आकर माँ से सारी बात कही। माँ को काफी दुःख हुआ। राजा ने जीव को राजसभा में आदरभरा स्थान दिया। बुद्धिहीन शिव बेमोत मारा गया। जब कि अक्कलमन्द जीव सुखी हुआ। उसने अपनी माँ को सुखी बनाया, माँ की इच्छा पूरी की। For Private And Personal Use Only
SR No.009636
Book TitleMayavi Rani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptasuri
PublisherMahavir Jain Aradhana Kendra Koba
Publication Year2009
Total Pages155
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size1 MB
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