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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४२ पत्र ६ ___ 'आत्मा ही कर्मबंधन करती है, कर्मफल भोगती है और कर्मों का नाश करती है...' इस सिद्धांत पर श्रद्धा होते हुए भी अनेकान्त दृष्टि से, निश्चय नय की दृष्टि से 'आत्मा कर्ता-भोक्ता नहीं है परन्तु मात्र ज्ञाता और द्रष्टा है' ऐसी विभावना अन्तरात्मा करती रहती है। 'शुद्धात्म-द्रव्यमेवाहं-' मैं शुद्ध आत्मद्रव्य हूँ- ऐसी चेतनावस्था में अंतरात्मा की जीवनयात्रा बहती है। ___ शरीर एवं इन्द्रियों की प्रकृतियों में 'मैं कर्ता-भोक्ता नहीं हूँ, मैं तो मात्र साक्षीरूप हूँ,' इस प्रकार की जागृति रखता है। इससे वह [अन्तरात्मा] रागद्वेष पर विजय पाता है। जीवन में शांति, समता और प्रसन्नता का अनुभव करता है। परमात्मा का स्वरूप बताते हुए कहते हैंज्ञानानन्दे हो पूरण पावनो, वर्जित सकळ उपाध, अतीन्द्रिय गुण-गण-मणि आगरु एम परमातम साध! परमात्मा० ज्ञानानन्द से पूर्ण होते हैं, ० पवित्र होते हैं, ० सभी उपाधि से मुक्त और ० अनन्त गुणों की खान...होते हैं। ध्येयस्वरूप परमात्मदशा को, योगीश्वर आनन्दघनजी ने स्पष्ट किया है। बहिरात्मदशा में तो यह परमात्मस्वरूप मनुष्य को जरा भी आकर्षित नहीं करता है। जो आत्मा को ही नहीं मानता है, वो परमात्मा को कैसे मानेगा? अंतरात्मदशा में ही परमात्मस्वरूप आत्मा को आकर्षित करता है। 'यह परमात्मस्वरूप ही मेरा वास्तविक स्वरूप है, मुझे वह स्वरूप प्राप्त करना है। शीघ्र प्राप्त करना है। मुझे ज्ञानानन्द से परिपूर्ण होना है। सभी पापों से मुक्तपावन बनना है मुझे। सब प्रकार की शारीरिक मानसिक उपाधियों से मुक्त बनना है मुझे | मेरा स्वरूप अतीन्द्रिय है! मेरे गुण अनन्त हैं... मुझे गुणमय स्वरूप प्राप्त करना है।' अंतरात्मा की ऐसी-ऐसी अभिरूचियाँ होती हैं। परमात्मस्वरूप वह जानता है, चाहता है और पाने का पुरुषार्थ करता है। इस प्रकार समर्पण की For Private And Personal Use Only
SR No.009635
Book TitleMagar Sacha Kaun Batave
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptasuri
PublisherMahavir Jain Aradhana Kendra Koba
Publication Year2010
Total Pages244
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size2 MB
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