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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पत्र २५ २२७ चेतन, इस गाथा का अर्थ बाद में बताऊँगा, पहले तीन प्रकार के 'वीर्य' बताता हूँ। जिससे यह गाथा सरलता से समझ पायेगा। १. पहला प्रकार है, शारीरिक वीर्य का । यह वीर्य मैथुन-क्रिया द्वारा विषय सुख भोगने में उपयोगी होता है। इस वीर्य से जीव कामवासना से उत्तेजित होकर मैथुनक्रिया करता है। २. दूसरा प्रकार है, मन-वचन-काया के योग द्वारा जो भोगा जाता है वह आत्मवीर्य का। इस वीर्य से जीव कर्मबंध कर संसार की चार गतियों में भटकता रहता है। संसार के सुख-दुःख भोगता रहता है। ३. मन-वचन-काया के योग निर्बल होने से, वीर्यान्तराय कर्म का सर्वथा क्षय होने से जो क्षायिकभाव से आत्मवीर्य प्रगट होता है, वह तीसरे प्रकार का वीर्य है। इस वीर्य से आत्मा मेरुवत् निश्चल बन जाती है, अयोगी [मन-वचनकाया के योगों से रहित] बन जाती है। अब गाथा का अर्थ समझ ले। 'कामवीर्य' यानी जिससे जीव मैथुनजन्य सुख भोगता है। उस कामवीर्य के वशवर्ती जीव भोगी बनता है। उसी प्रकार जीव [आतम] मन-वचन-काया के योगों से भोगी बनता है। वीरता से [शूरपणे] आत्मोपयोग में लीन जब बनता है जीव, तब वह अयोगी [चौदहवें गुणस्थानक पर] बन जाता है। अर्थात् मन-वचन-काया के योग नहीं रहते। - पहले प्रकार का वीर्य जीवात्मा को कामी-भोगी बनाता है, - दूसरे प्रकार का वीर्य जीवात्मा को संसार-परिभ्रमण करवाता है, - तीसरे प्रकार का वीर्य आत्मा को अभोगी-मुक्त बनाता है। अब, वीर्य [वीरपणुं] का उद्भवस्थान बताते हुए योगीराज परमात्मा के प्रति कृतज्ञभाव अभिव्यक्त करते हैंवीरपणुं ते आतमठाणे, जाण्युं तुमची वाणे रे, ध्यानविनाणे शक्तिप्रमाणे, निज ध्रुवपद पहिचाणे रे.... 'हे वीर प्रभो, आपकी [तुमची] वाणी से मैंने जाना कि वीर्य [वीरपणुं] का मूल स्रोत आत्मा [आतमठाणे] है। वीरता आत्मा में से प्रगट होती है।' श्री आनन्दघनजी वीर्यविषयक जो बात कर रहे हैं, वह उनकी मनःकल्पना की बात नहीं है, परंतु जिनागमों के अध्ययन से उनको यह बात मिली है। साथ For Private And Personal Use Only
SR No.009635
Book TitleMagar Sacha Kaun Batave
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptasuri
PublisherMahavir Jain Aradhana Kendra Koba
Publication Year2010
Total Pages244
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size2 MB
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