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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पत्र २४ २१६ चेतन, ज्ञान और ज्ञेय के विषय में यह विशद चर्चा की जा रही है। जैन दर्शन मानता है कि जिस समय जिस वस्तु का ज्ञान होता है, दूसरे समय में ज्ञेय बदल जाता है, यानी विषय बदल जाता है तो वह ज्ञान [पहले विषय का नष्ट होता है : ज्ञेय का बदलना.... ज्ञेय का नाश होना, कहा जाता है। कविराज कहते हैं : ज्ञेय का विनाश होने पर उसका ज्ञान भी विनष्ट होता है, अतः ज्ञान विनाशी हुआ। और ज्ञान विनाशी है, तो ज्ञानी [आत्मा] भी विनाशी मानना पड़ेगा! चूंकि ज्ञान-ज्ञानी को अभिन्न माना है। ___ काल की दृष्टि से पदार्थ की सत्ता [अस्तित्व] स्व-काल में ही मानी गई है, वह सत्ता पर-काल में कैसे जा सकती है? इस प्रकार तीन आपत्तियों का उद्भावन किया गया-१. आत्मा की पर-स्वरूपता, २. आत्मा की अनेकता और ३. आत्मा की विनाशिता। अब 'भाव' की दृष्टि से इस विषय में एक नयी आपत्ति का उद्भावन करते हुए कहते हैं : परभावे करी परता पामताँ, स्वसत्ता थिरठाण आत्मचतुष्कमयी परमां नहीं, तो किम सहुनो रे जाण? जिस प्रकार दर्पण में एक मनुष्य का प्रतिबिंब गिरता है, तो दर्पण पुरुषरूप बन जाता है, वैसे ज्ञान में ज्ञेयपदार्थ का प्रतिबिंब गिरता है, तो ज्ञान ज्ञेयमय बन जाता है! यानी स्वभाव परभाव-रूप बन जाता है! परंतु दर्पण की सत्ता दर्पण के रूप में ही होती है, मनुष्य के रूप में नहीं। वैसे आत्मा की सत्ता स्व-रूप में होती है, पररूप में नहीं होती। 'आत्मचतुष्क' का अर्थ है, आत्मा का स्व-द्रव्य, स्व-क्षेत्र, स्व-काल और स्व-भाव | यह आत्मचतुष्क पर-पदार्थों में संभवित नहीं है तो फिर आत्मा को सर्वज्ञ [सहुनी रे जाण] कैसे कहते हो? सर्वज्ञ मानने पर स्व-द्रव्य वगैरह चारों भी पर-द्रव्यरूप, पर-क्षेत्ररूप पर-कालरूप, और पर-भावरुप बन जायेंगे.... जो संभवित नहीं है। इसलिये या तो आत्मा को सर्वज्ञ मत मानो अथवा 'आत्मा पर-रूप बन सकती है', ऐसा मान लो! __वेदान्त दर्शन आत्मा को एक मानता है और विभु [व्यापक] मानता है। जैनदर्शन आत्मायें अनन्त मानता है और विभु नहीं परंतु शरीरव्यापी मानता है। देहमुक्त आत्मा को भी विश्वव्यापी नहीं मानता है, स्व-क्षेत्र में ही मानता है। For Private And Personal Use Only
SR No.009635
Book TitleMagar Sacha Kaun Batave
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptasuri
PublisherMahavir Jain Aradhana Kendra Koba
Publication Year2010
Total Pages244
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size2 MB
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