SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 218
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २०७ पत्र २३ कर। सभी कर्मबंधनों को तोड़ दे ।' यह आशय था नेमनाथ का । राजीमती ने संसार का त्याग कर दिया, वे साध्वी बन गई ! त्रिविध योग धरी आदर्यो रे, नेमनाथ भरतार, धारण पोषण तारणो रे, नवरस मुगताहार... 'हे नेमिनाथ! मन, वचन और काया के त्रिविध योग से मैंने आपको मेरे पति [भरतार] के रूप में स्वीकृत [आदर्यो] किये हैं । आप मेरा स्वीकार [धारण] करें, आप मुझे निभाये [पोषण] और आप ही मेरी जीवननैया पार लगायें [तारणो], ऐसी मेरी विनती है । आप ही मेरे गले में मोतियन की माला हो! उस माला में नौ रस-रूप [शृंगार, हास्य, वीर...इत्यादि नौ रस हैं] नौ मोती हैं।' चेतन, राजीमती के समर्पणभाव की कविराज ने विशद अभिव्यक्ति की है । नेमिकुमार के रूप में कल्पना करके वह महान स्त्री मन-वचन और काया से समर्पित हो जाती है। पति-पत्नी के संबंध में ऐसा समर्पण अपेक्षित होता है। तभी वह संबंध श्रेष्ठ बनता है । नेमनाथ भगवंत के रूप में कल्पना करके राजीमती इच्छायोग, शास्त्रयोग और सामर्थ्ययोगरूप - त्रिविध योगों से समर्पित होती है। यानी राजीमती नेमिनाथ की शिष्या - साध्वी बनना चाहती है... उनकी आज्ञानुसार समग्र जीवन जीना चाहती है और शुक्लध्यान लगाकर आत्मा की पूर्णता पाना चाहती है । 'आप रागी तो मैं रागी, आप विरागी तो मैं भी विरागी !' राजीमती का यह दृढ़ संकल्प था। जब राजमती से शादी किये बिना नेमिकुमार वापस चले गये थे, तब राजीमती को दूसरे मनपसंद राजकुमार से शादी कर लेने के लिये बहुत समझायी गई थी, परंतु राजमती तो नेमिकुमार को मन-वचन से समर्पित हो गई थी। उसने शादी ही नहीं की और जब भगवान नेमिनाथ को गिरनार के पहाड़ों में केवलज्ञान प्रगट हुआ तब वह वहाँ पहुँच गई और भगवंत को कहा : मेरे नाथ! आपने भले ही हाथ में हाथ नहीं लिया, अब आप मेरे सिर पर हाथ रखें और मुझे आपकी शिष्या बना लें। आप मेरा स्वीकार करें। आपके श्रमणीसंघ में ले लें । आप मेरे आत्मविकास के लिये प्रेरणा दें। मार्गदर्शन दें। मैं यथाख्यातचारित्र का पालन करनेवाली बनूँ । विशुद्ध चारित्र का पालन करनेवाली बनूँ-वैसे मुझे आत्मभावों से पुष्ट करें। आप ही मेरे तारक हैं। भवसागर से तिरानेवाले हैं- ऐसी मेरी अटूट श्रद्धा है। मैं शान्तरस में, प्रशमरस में निमग्न रहूँ-वैसा आशीर्वाद दें।' For Private And Personal Use Only
SR No.009635
Book TitleMagar Sacha Kaun Batave
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptasuri
PublisherMahavir Jain Aradhana Kendra Koba
Publication Year2010
Total Pages244
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy