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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पत्र २२ १९६ श्रुत अनुसार विचारी बोलं, सुगुरु तथाविध न मिले रे, किरिया करी नवि साधी शकिये, ए विखवाद चित्त सघले रे... श्रीमद आनन्दघनजी कहते हैं : 'मैंने जो यह ध्यान-प्रक्रिया का निर्देश किया है, वह मेरी मनः कल्पना नहीं है। शास्त्रानुसार चिंतन कर, मैंने कहा है [बोल]. इसलिये यह ध्यानप्रक्रिया श्रद्धेय तो है, परंतु वैसे ध्यानसिद्ध सुगुरु नहीं मिलते हैं। सभी मुमुक्षु आत्माओं के मन में यह विखवाद [चिंता] है - 'ऐसे ध्यान-सिद्ध सुगुरु नहीं मिल रहे हैं... क्या करें? वैसे ध्यान कर हम उसकी साधना [ध्यानसाधना] नहीं कर सकते हैं।' श्री आनन्दघनजी के समय सुगुरु का [ध्यानसिद्ध] अभाव था, वैसे आज भी अभाव है। लगता है कि ध्यानसाधना की यह परंपरा ही लुप्तप्रायः हो गई है। क्या करें? सिवाय परमात्मशरण, दूसरा कोई विकल्प दिखता नहीं है। ते माटे ऊभा कर जोडी, जिनवर आगल कहिये रे... समय-चरण सेवा शुद्ध देजो, जिम आनन्दघन लहिए रे... 'हे भगवंत! इसलिए [सदगुरु नहीं मिलते है इसलिए] आपके सामने दो हाथ [कर] जोड़कर खड़े [ऊभा] हैं और विनती करते हैं - 'आपके वचन [समय] की शुद्ध चरणसेवा देना, जिससे हम आनन्दघन [मोक्ष] प्राप्त करें।' ___ कहने का तात्पर्य यह है कि ऐसा सुगुरुयोग देना कि हम आपके प्रवचन को समझें... उसकी आराधना कर सकें और कर्मबंधनों को तोड़ कर परमपदमोक्ष पा सके। परमात्मा के अचिन्त्य अनुग्रह से, मोक्षमार्ग की आराधना में सहायक सामग्री प्राप्त होती है। श्री आनन्दघनजी ने इसलिए परमात्म अनुग्रह की याचना की है। चेतन, श्री नमिनाथ भगवंत की स्तवना में बहुत सी गंभीर और गहन बातें कही गई है। तू कम से कम तीन बार तो पढ़ना ही। - प्रियदर्शन For Private And Personal Use Only
SR No.009635
Book TitleMagar Sacha Kaun Batave
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptasuri
PublisherMahavir Jain Aradhana Kendra Koba
Publication Year2010
Total Pages244
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size2 MB
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