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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पत्र २२ १८९ ‘अत्थं भासइ अरिहा’ अरिहंत [तीर्थंकर] अर्थ कहते हैं, सूत्रों की रचना गणधर करते हैं । जीवनपर्यंत तीर्थंकर अर्थ ही कहते रहते हैं । गणधरों के द्वारा बनाये हुए सूत्र, बारह शास्त्रों में विभक्त हुए। वे बारह शास्त्र 'द्वादशांगी' के नाम से प्रसिद्ध हुए । द्वादशांगी यानी बारह अंग । अंग यानी शास्त्र । शास्त्र यानी सूत्र । ये बारह शास्त्र लिखे गये नहीं थे, प्रज्ञावंत गणधरों ने अपने शिष्यों को सुनाये, शिष्यों ने स्मृति में भर लिये । इस प्रकार शास्त्रज्ञान सुनने से मिलता था, इसलिए यह ज्ञान 'श्रुतज्ञान' कहलाया । गुरु-शिष्य की परंपरा से यह 'श्रुतज्ञान' का प्रवाह, भगवान महावीर स्वामी के निर्वाण के बाद भी चलता रहा । श्रुतज्ञान का अखंड प्रवाह ५०० वर्ष तक बहता रहा। श्री भद्रबाहुस्वामी तक वह प्रवाह आया । भद्रबाहुस्वामी श्रुतकेवली थे, यानी समस्त द्वादशांगी का ज्ञान उनको था। भद्रबाहुस्वामी ने भविष्य को देखा । 'भविष्य में मनुष्यों की स्मृति और बुद्धि का ह्रास होता जायेगा । 'द्वादशांगी' दुर्बोध होती जायेगी । ' उन्होंने ‘द्वादशांगी' पर 'निर्युक्ति' की रचनायें की । 'निर्युक्ति' में उन्होंने सूत्रों के भाव और रहस्य प्रकाशित किये। आज भी ऐसी भद्रबाहुस्वामीजी की १० निर्युक्तियाँ प्राप्त हैं । श्रुतकेवली की रचना गणधरों की रचना के बराबर होती हैं। कालक्रम से, स्मृति और बुद्धि का ह्रास होने से, 'द्वादशांगी' में से बारहवें अंग 'दृष्टिवाद' का ज्ञान लुप्त हो गया। बाद में रहे ग्यारह अंग । आज ये ग्यारह अंग [सूत्र] प्राप्त हैं, परंतु पूर्णरूप से नहीं है। ग्यारह अंग के कुछ-कुछ अंग ही प्राप्त हुए हैं । जो सूत्र और नियुक्तियों का ज्ञान, भद्रबाहुस्वामी के बाद गुरु-शिष्य की परंपरा से मिलता रहा... क्रमशः कम होता गया । गुरु-शिष्य की परंपरा में जो मेधावी आचार्य - उपाध्यायादि आये, उन्होंने सूत्र एवं नियुक्तियों को विशद करने वाले 'भाष्य' लिखे । उसी सुविहित गुरु-शिष्य की परंपरा में कुछ ऐसे प्रज्ञावंत महापुरुष पैदा हुए कि जिन्होंने सूत्र, निर्युक्ति और भाष्य को संक्षेप में समझाने वाली 'चूर्णि’ की रचनायें की। चूर्णियो की रचना 'प्राकृत भाषा ' में हुई है । For Private And Personal Use Only
SR No.009635
Book TitleMagar Sacha Kaun Batave
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptasuri
PublisherMahavir Jain Aradhana Kendra Koba
Publication Year2010
Total Pages244
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size2 MB
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