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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १८७ पत्र २२ जिनवरमां सघलां दरिसण छे, दरिसणमां जिनवर भजना रे... सागरमां सघली तटिनी सही, तटिनीमां सागर भजना रे.... तटिनी यानी नदी। जो-जो नदियाँ समुद्र [सागर] में मिलती हैं, वे सभी नदियाँ समुद्र में हैं-ऐसा माना जा सकता है। परन्तु हर नदी में सागर है- ऐसा निश्चित रूप से नहीं कह सकते। कभी सागर का पानी नदी में चला जाता है...कभी नहीं भी जाता है। श्री जिनेश्वरदेव में सभी [सघलां] दर्शनों का समावेश हो सकता है...चूंकि जिनेश्वरदेव सागर के समान विशाल हैं। परंतु भिन्न-भिन्न दर्शनों में जिनेश्वर के दर्शन कभी होते हैं, कभी नहीं होते हैं। चेतन, योगदर्शन का अध्ययन करते समय मुझे भी ऐसा लगता था कि 'क्या मैं जैनदर्शन का ही अध्ययन कर रहा हूँ?' महर्षि पतंजलि कि जिन्होंने 'योगदर्शन' की रचना की है, वे जैनदर्शन के अति निकट के स्नेही मालूम हुए! वैसे, सांख्य, बौद्ध, वेदान्त वगैरह के अध्ययन में भी जैनदर्शन की छाया प्रतीत होती थी। यदि ये सारे दर्शन एकांत आग्रह को छोड़ दें, तो वे जैनदर्शन के ही पैर और हाथ हैं। चेतन, अब श्री आनन्दघनजी बड़ी गंभीर बात कह रहे हैंजिनस्वरूप थई जिन आराधे, ते सही जिनवर होवे रे... भुंगी इलिकाने चटकावे ते भुंगी जग जोवे रे... ___ संस्कृत भाषा में 'भ्रमर-इलिकान्याय' बताया गया है। इलिका=ढोला, [एक छोटा जन्तु] भौंरी का ध्यान करती-करती खुद भौंरी बन जाती है, इसी बात को यहाँ श्री आनन्दघनजी ने थोड़े फेरफार के साथ कही है। भौंरी ढोला को डंक मारती है [चटकावे] और धीरे धीरे ढोला भौंरी बन जाती है। योगीराज यह बताना चाहते हैं कि जिनस्वरूप बनकर जो जिनेश्वर का ध्यान करते हैं, वे अवश्य [सही] जिन बन जाते हैं। प्रस्तुत में जो भौंरी और ढोला की उपमा दी है, वह ठीक नहीं लगती है। प्रस्तुत में 'जिनेश्वर के ध्यान से मनुष्य जिन बनता है-' यह बात सिद्ध करनी है। जिनेश्वरदेव आराधक को कहाँ डंक मारते हैं? हस्तप्रत में [इस स्तवन की] ऐसा होना चाहिए For Private And Personal Use Only
SR No.009635
Book TitleMagar Sacha Kaun Batave
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptasuri
PublisherMahavir Jain Aradhana Kendra Koba
Publication Year2010
Total Pages244
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size2 MB
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