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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पत्र १९ १५५ ।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।। ० शास्त्र-ज्ञान और तपश्चर्या को व्यर्थ नहीं मानना है, छोड़ देना नहीं है, परन्तु इससे भी आगे की आराधना करनी है। ० श्री आनन्दघनजी, आत्मानुभव की निरन्तरता को धर्म कहते हैं, परमधर्म कहते हैं, श्रेष्ठ धर्म कहते हैं। ० आत्मा के अलावा दूसरा कोई तत्त्व नहीं चाहिए अनुभव में। मात्र शुद्ध ___आत्मा! आत्मा के अनादि पर्यायों का भी चिन्तन नहीं करने का है। ०कोई विकल्प नहीं, कोई विचार नहीं! शुभ विचार नहीं और शुद्ध विचार भी नहीं। विचारों से सर्वथा मुक्ति पा लेनी है, निर्विकल्प-दशा का आनन्द अनुपम होता है। ० व्यवहार-धर्म के सहारे निर्विकल्प समाधि तक नहीं पहुँचा जा सकता है। । । । । । । । । । । । । । । । । । । । । । । । । । । । । । । पत्र : १९ श्री अरनाथ स्तवना प्रिय चेतन, धर्मलाभ! तेरा पत्र मिला। आनन्द, भगवान कुंथुनाथजी की स्तवना में 'मन को वश करना मुश्किल है', यह बात कही गई । इस स्तवना में मन को स्थिर कर आत्मा की पूर्णता पायी जा सकती है-यह बात बता रहे हैं। केवल ज्ञान-ध्यान और तपश्चर्या से मन स्थिर नहीं हो पाता है, यह बात सही है, परंतु मन को स्थिर करने के प्रारंभिक उपाय वे ही हैं। शास्त्रज्ञान में और तपश्चर्या में रुक नहीं जाना है। इससे भी आगे बढ़ना है। शास्त्रज्ञान को और तपश्चर्या को व्यर्थ नहीं मानना है, छोड़ देना नहीं है, परन्तु इससे भी आगे की आराधना करनी है। चेतन, कुछ लोग कुन्थुनाथ भगवंत की स्तवना को लेकर, मन को स्थिर करने का प्रयत्न छोड़ देते हैं! अरनाथ भगवान की स्तवना पढ़ते नहीं है.... और निराश हो जाते हैं। बड़ी गलती हो रही है यह। अरनाथजी की स्तवना में योगीराज, मुमुक्षु को आत्मा के पास ले जाते हैं.... खूब निकट ले जाते हैं.... आत्मभूमि पर रमण करवाते हैं! For Private And Personal Use Only
SR No.009635
Book TitleMagar Sacha Kaun Batave
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptasuri
PublisherMahavir Jain Aradhana Kendra Koba
Publication Year2010
Total Pages244
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size2 MB
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