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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १४९ पत्र १८ कभी शत्रु बन जाते हैं और ऐसे राग-द्वेष के विचार करते हैं.... कि उन मोक्षाभिलाषी साधकों को मोक्ष से विरुद्ध दिशा में ले जाते हैं। [वयरीडु = शत्रु, एहq = ऐसा, चिंते = सोचता है, अवले पासे = विरुद्ध दिशा में] दुनिया के इतिहास में ऐसे कई उदाहरण पढ़ने में आते हैं कि उच्च कोटि के विद्वान, उच्च कोटि के तपस्वी और उच्च कोटि के योगी भी, मन के कारण ही साधनामार्ग से भ्रष्ट हुए। आगम आगमधर ने हाथे, नावे किणविध आंकुं.... आनन्दघनजी कहते हैं : सामान्य कोटि के ज्ञानी की बात ही छोड़े, जो आगमों के ज्ञानी हैं, यानी विशिष्ट ज्ञानी हैं, वे भी आगमज्ञान के माध्यम से मन को वश करने गये, परंतु निराश हुए। उनके हाथ निराशा ही लगी। किसी भी प्रकार [किणविध] वह अंकुश में नहीं आता है। 'आंकु' यानी अंकुश में। किहां कणे जो हठकरी हटकुं, तो व्याल तणी परे वांकु.... 'किसी जगह [किहां कणे] मैं जिद्द कर [हठ करी] रोकता हूँ [हटकुं] तो साँप [व्याल] की तरह [तणीपरे] टेढ़ा चलता है। कभी तो साँप की तरह ज्यादा भयानक बन जाता है।' तीव्र राग-द्वेष से ग्रसित मन, अथवा कभी-कभी रागी-द्वेषी हो जानेवाला मन, मात्र शास्त्रों के अध्ययन से अंकुश में नहीं आ सकता है। और दूसरी बात बड़ी महत्वपूर्ण कह दी है योगीराज ने। मन का दमन करने से.... मन पर बलात्कार करने से मन वश में नहीं आता है, वह ज्यादा उधम मचाता है, वह ज्यादा मनस्वी बन जाता है। मन का वशीकरण कोरे शास्त्रज्ञान से नहीं हो सकता, कोरे देहदमन से नहीं हो सकता और घंटे-दो-घंटे के ध्यान से भी नहीं हो सकता है। ___ कैसा विचित्र है मन! कभी लगता है कि मन बड़ा ठग है, तो कभी लगता है, बड़ा साहुकार है। जो ठग कहुं तो ठगतो न देखें, शाहुकार पण नाही, सर्वमांहे ने सहुथी अलगुं ए अचरिज मनमांही.... यदि मैं मेरे मन को ठग कहता हूँ.... और वह कहाँ एवं कैसे ठगाई करता है-वह देखने जाता हूँ तो वह ठगाई करता हुआ नहीं दिखाई देता है। फिर For Private And Personal Use Only
SR No.009635
Book TitleMagar Sacha Kaun Batave
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptasuri
PublisherMahavir Jain Aradhana Kendra Koba
Publication Year2010
Total Pages244
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size2 MB
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