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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पत्र १७ १३६ ० आगम-ग्रन्थों के ज्ञाता होते हैं, ० सम्यग्दृष्टि होते हैं, यानी श्रद्धावान् होते हैं, ० धर्मक्रियाशील होते हैं, यानी पापकर्मों को आत्मा में आने से रोकनेवाली [संवर] धर्मक्रियायें करनेवाले होते हैं। ० शुद्ध गुरुपरंपरा जिनको प्राप्त हुई हो [संप्रदायी] | ० निर्दभ.... सरलहृदयी होते हैं [अवंचक ० पवित्र आत्मानुभव करनेवाले होते हैं [शुचि = पवित्र] चेतन, ऐसे सद्गुरु का योग-संयोग प्राप्त होने पर मनुष्य की शान्तियात्रा आगे बढ़ती है। इस योग-संयोग को ‘योगावंचक' कहा गया है। अवंचक गुरु का मिलना-'योगावंचक' कहलाता है। अथवा सद्गुरु का अवंचक योग होना 'योगावंचक' है। __ऐसे सद्गुरु मिलने पर, उनके दर्शन मात्र से हृदय आनन्दित हो जाय, दर्शनमात्र से शुभ विचार जागृत हो जाय, दर्शनमात्र से उनके प्रति प्रीति पैदा हो जाय, तो समझना कि 'योगावंचक' की प्राप्ति हुई है। ___ ऐसे सद्गुरु मिलने पर, उनका साथ छोड़ना नहीं चाहिए | उनका आलंबन लेकर, वैभाविक भावों से मुक्ति पाने का और स्वाभाविक भावों को जाग्रत करने का पुरुषार्थ करना चाहिए। शुद्ध आलंबन आदरे तजी अवर जंजाल रे.... 'आदरे' यानी ग्रहण करना। सदगुरु शुद्ध आलंबन हैं। उनको प्रतिदिन त्रिकाल वंदन करना, उनकी सेवा करना, वे जो मार्गदर्शन दें, तदनुसार प्रवृत्ति करना.... इसको ‘क्रियाअवंचक' योग कहते हैं | शुभ भाव से गुरु का आलंबन लेना और व्रत-नियमरूप क्रिया करना, नमस्कार-सेवाभक्ति वगैरह क्रिया करना, 'क्रियावंचक' योग है। कवि कहते हैं 'तजी अवर जंजाल,' यानी संसार के पाप बंधानेवाले क्रियाकलापों का त्याग कर, मन को चिन्ताओं से मुक्त कर, सद्गुरु का आलंबन ग्रहण करना चाहिए। तामसी वृत्ति सवि परिहरि, भजे सात्त्विक साल रे.... सद्गुरु का आलंबन लेकर, कलुषित विचारों [तामसी वृत्ति] का त्याग For Private And Personal Use Only
SR No.009635
Book TitleMagar Sacha Kaun Batave
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptasuri
PublisherMahavir Jain Aradhana Kendra Koba
Publication Year2010
Total Pages244
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size2 MB
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