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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ११८ पत्र १५ श्री आनन्दघनजी ने किसी जीव का दोष नहीं बताते हुए 'कलिकाल' का दोष बताया है। 'मोहनीय कर्म' की प्रबलता का दोष बताया है । जब आनन्दघनजी ने ऐसे कोई साधुवेशधारी को कहा: 'महानुभाव, जिनाज्ञा का पालन ऐसे नहीं हो सकता, यह तो आप जिनशासन की विडंबना कर रहे हो....।' तब उनका जवाब मिला : 'योगीराज, यह तो व्यवहार मार्ग है।' तब योगीराज का पुण्यप्रकोप प्रज्ज्वलित होता है, वे कहते हैंवचन निरपेक्ष व्यवहार जूठो कह्यो, वचन सापेक्ष व्यवहार साचो, क्या व्यवहारमार्ग की बात करते हो ? जिसमें जिनाज्ञा की उपेक्षा हो, वैसा कोई भी मार्ग सही नहीं है, गलत है । गच्छवाद के ये सारे क्रियाकलाप क्या व्यवहारमार्ग हैं? साधुवेश में रहते हुए, स्वार्थपरवश होकर मंत्र-तंत्र और डोराधागा करना, कौन सा व्यवहारमार्ग है ? जिनाज्ञा के साथ जिस व्यवहार का कोई संबंध न हो, वैसा व्यवहार जिनशासन में मान्य नहीं है । वचन निरपेक्ष व्यवहार संसारफल, सांभली आदरी कांई राचो..... द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के माध्यम से जिनाज्ञा का विचार करना चाहिए। ऐसा कोई भी विचार किये बिना, केवल मान-सम्मान पाने के लिए मनमाना व्यवहार चलाना दुःखदायी सिद्ध होता है। यानी वैसा व्यवहारमार्ग चलानेवाले और उस पर चलनेवाले संसार की चार गतियों में भटक जाते हैं । उनकी आत्मा पतनोन्मुख हो जाती है । परमात्मा के वचन आगम ग्रंथों में संग्रहित हैं । आप सुनें उन वचनों को, ग्रहण करें उन वचनों को और आनन्दित बनें। जिनाज्ञा से विपरीत सभी क्रिया-कलापों को छोड़ने चाहिए, बंद करने चाहिए। अन्यथा ऐसे क्रिया-कलापों को देखकर दुनिया के लोग परमात्मा महावीरदेव [देव] के विषय में, निर्ग्रन्थ साधुपुरुषों [गुरु] के विषय में और सद्धर्म के विषय में कैसी कल्पना करेंगे? विशुद्ध कल्पना नहीं कर पायेंगे। दूसरे लोग तो जैनधर्म का पालन करनेवाले साधु-साध्वी - श्रावक और श्राविकाओं के क्रिया-कलापों को देखकर ही सारी धारणायें बनाते हैं । देव-गुरु- धर्मनी शुद्धि कहो किम रहे ? किम रहे शुद्ध श्रद्धान आणो, अशुद्ध व्यवहारों को देखकर, दुनिया के लोग परमात्मा के विषय में, गुरुतत्त्व के विषय में और धर्म के विषय में गलत धारणायें बाँध लेते हैं, इस For Private And Personal Use Only
SR No.009635
Book TitleMagar Sacha Kaun Batave
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptasuri
PublisherMahavir Jain Aradhana Kendra Koba
Publication Year2010
Total Pages244
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size2 MB
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