SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 77
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जिंदगी इम्तिहान लेती है ६४ विचार आया! 'वह मरकर दुर्गति में न चली जाये... 'रानी का अहित न हो'यह विचार आया। यदि हृदय में अपने सुखों की ममता होती, अपने जीवन के प्रति मोह होता तो उनको दूसरा ही विचार आता! 'राजा पूछता है तो मुझे सच-सच बता देनी चाहिए... मैं क्यों झूठ बोलूँ? रानी ने मेरे साथ घोर अन्याय किया है... मैं निर्दोष हूँ... मेरे ऊपर झूठा कलंक मढ़ दिया...भले वह अपने पाप का फल भोगे... चढ़ने दो शूली पे...।' ऐसा एक भी विचार सुदर्शन को नहीं आया। कैसे आता? निःसंग और निर्लेप हृदय वाले मनुष्यों के विचार दिव्य होते हैं, निराले होते हैं। उसकी मैत्री अद्वितीय और पवित्रतम होती है। सहनशीलता और समर्पण की सुदृढ़ नींव पर मैत्री का महल टिक सकता है। खड़ा रह सकता है। सुदर्शन की सहनशीलता कितनी अपूर्व थी? उनका समर्पण कितना भव्य था? अभया के हित का विचार उनके एक-एक आत्मप्रदेश में व्याप्त हो गया था। राजा ने शूली पर चढ़ने की सजा सुनाई.. सुदर्शन शूली पर चढ़ने चल दिये... उस दृश्य को कल्पना में लाकर देखो तो सही... उनके हृदय में मैत्रीभाव का महासागर हिलोरे ले रहा होगा... उनके मुख पर तेज चमक रहा होगा... उनके एक-एक कदम में दृढ़ता और वीरता प्रतीत होती होगी। अपराधिनी ऐसी रानी के प्रति ऐसा मैत्रीभाव? निरपराधी के प्रति अपने हृदय में ऐसा मैत्रीभाव प्रकट होता है? दूसरे जीवों का अहित न हो, ऐसा विचार आता है? जीवमात्र के प्रति प्रेम जागृत हुए बिना मैत्री कैसी होगी? किसी का भी मित्र बनने का दावा करने से पूर्व अपने हृदय को टटोलना। हृदय स्पृहारहित, कामनारहित, ममतारहित बना है? यदि ऐसा हृदय नहीं है, तो तू दूसरों को मित्र के रूप में धोखा ही देगा। जहाँ तुझे तेरा हित नहीं दिखेगा, तेरा कोई स्वार्थ नष्ट होता हुआ देखेगा, मित्रता हवा बन कर आकाश में उड़ जाएगी। मित्र बनाने की भी यह दृष्टि अपनाना। असंख्य कामनाओं से और स्पृहाओं से भरे हुए मनुष्यों को यदि मित्र बनाए और विश्वास कर लिया तो बुरी तरह फंस जाएगा। परंतु तू भी किसी न किसी स्वार्थ से प्रेरित होकर मित्रता चाहता है न? तेरा हृदय निःस्वार्थ कहाँ है? है हृदय निःस्वार्थ? तेरी इच्छाएँ, तेरी वासनाएँ जो पूर्ण करते हैं, वे मित्र! जिसको 'प्रेम' कहा जाता है, वह प्रेम निर्मोही और निःसंग हृदय में ही हो सकता है। प्रेम का एक रूप है मैत्री, दूसरा रूप है करुणा, तीसरा रूप है प्रमोद और चौथा रूप है माध्यस्थ । ये चारों भाव प्रेम के ही विभिन्न रूप हैं। For Private And Personal Use Only
SR No.009633
Book TitleJindgi Imtihan Leti Hai
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptasuri
PublisherMahavir Jain Aradhana Kendra Koba
Publication Year2009
Total Pages234
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size3 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy