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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५० जिंदगी इम्तिहान लेती है जिसकी तरफ से हमें कुछ भी नहीं मिलता हो, उसके प्रति प्रेम करना प्रेम है। ऐसा प्रेम आत्मदृष्टि प्राप्त हुए बिना सम्भव नहीं। शुद्ध आत्मदृष्टि चाहिए | सच्चिदानंदपूर्ण आत्मदृष्टि ही ऐसे दिव्य प्रेम का माध्यम है। आत्मज्ञानी मनुष्य ही ऐसा प्रेमी हो सकता है। अथवा यूँ कहो कि ऐसा प्रेमी ही आत्मज्ञानी कहा जा सकता है। कोरा शास्त्रज्ञानी कभी भी ऐसा प्रेमी नहीं कहा जा सकता। एक प्रकाण्ड शास्त्रज्ञानी ने मुझे कहा : 'मैंने अपने शिष्यों को पढ़ाये, विद्वान बनाए, परन्तु उनका मेरे प्रति कोई भक्तिभाव नहीं, समर्पणभाव नहीं... सब स्वार्थी बन गए..!' उनको अपने ही शिष्य स्वार्थी नजर आए! यानी शिष्यों पर प्रेम नहीं रहा। कैसे रहता? प्रेम होता तो रहता | प्रेम ही नहीं। शिष्यों से भक्तिभाव की कामना थी! प्रेम कामनारहित होता है! उन्हें शास्त्रों का शब्दज्ञान था, परन्तु आत्मा की अनुभूति नहीं थी। वे प्रेम पाना चाहते थे, प्रेम देना नहीं चाहते थे। जो उनसे प्रेम करे वे उनके प्रति प्रेम कर सकते हैं! परंतु उसको प्रेम कैसे कहा जाये? वह तो राग ही है। राग अपवित्र है। ___ आत्मज्ञानी होना पड़ेगा। सच्चिदानंदपूर्ण आत्मा की अनुभूति करनी होगी। जगत को पूर्ण देखना होगा। जब तक अपूर्णता नजर आएगी, सच्चा आत्मप्रेम प्रकट ही नहीं होगा। 'सच्चिदानंदपूर्णेन पूर्णं जगदवेक्ष्यते।' 'ज्ञानसार' का यह प्रतिपादन बहुत ही अर्थपूर्ण है। जगत को पूर्ण देखना होगा। इसलिए सच्चिदानंद से पूर्ण बनना पड़ेगा। थोड़ी क्षणों के लिए भी ऐसा बनना पड़ेगा। इसलिए प्रतिदिन - ___'शुद्धात्मद्रव्यमेवाहं शुद्धज्ञानं गुणो मम।' 'मैं शुद्ध आत्मद्रव्य हूँ, शुद्धज्ञान मेरा गुण है!' इस सूत्र को रटना पड़ेगा। इस भाव में बहना पड़ेगा। शुद्ध आत्मस्वरूप के भाव में बहते रहोगे, जगत पूर्ण प्रतीत होगा। पूर्ण के प्रति अनुभवात्मक, सूक्ष्मतर प्रेम जागृत होगा। उसका प्रदर्शन नहीं होगा। तुम्हारे उस प्रेम को दुनिया नजरअंदाज नहीं कर सकेगी। दुनिया को अपने प्रेम की प्रतीति कराना आवश्यक भी नहीं है। जब तक आत्मस्वरूप का अज्ञान है, तब तक प्रेमतत्त्व पाया नहीं जा For Private And Personal Use Only
SR No.009633
Book TitleJindgi Imtihan Leti Hai
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptasuri
PublisherMahavir Jain Aradhana Kendra Koba
Publication Year2009
Total Pages234
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size3 MB
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