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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १६१ जिंदगी इम्तिहान लेती है की मिथ्या दौड़धूप! परद्रव्य को स्वद्रव्य बनाने की सतत प्रवृत्ति में भूल गये हैं, विशुद्ध आत्मसत्ता को। सुख पाने के लिये और दुःख से बचने के लिये चल रहा है, भ्रमणापूर्ण पुरुषार्थ । तेरे पत्र में तुम्हारी समस्या को पढ़ा। जब तक तू वास्तविकता से अज्ञात रहेगा, वस्तुस्थिति से अपरिचित रहेगा, तेरी कोई न कोई मानसिक समस्या बनी ही रहेगी । तू लिखता है कि 'सब कुछ मेरी इच्छाओं के प्रतिकूल हो रहा है! कोई मेरी इच्छाओं की परवाह नहीं करता...।' ___ प्रिय मुमुक्षु! अपने घर में तू अकेला तो है नहीं, तेरे पिताजी हैं, भाई है, बहन है, माँ है... उन सबकी भी इच्छायें होती हैं न? किसकी इच्छा चले और किसकी इच्छा नहीं चले? यदि कोई ऐसा आग्रह रखे कि 'मेरी ही इच्छा के अनुसार सब कुछ होना चाहिए', तो घर में संघर्ष हो जायेगा। मान ले क्षणभर कि घर में तेरी इच्छानुसार सब कुछ होता है, क्या तेरे भाई के मन में समस्या पैदा नहीं होगी? 'घर में मेरी इच्छा से प्रतिकूल हो रहा है... मेरी एक भी बात नहीं चलती।' वैसे तेरे पिताजी के मन में भी कुछ उलझनें पैदा नहीं होगी क्या? ___ मुझे तो ऐसा लगता है कि जो मनुष्य अपनी इच्छाओं के अनुसार ही सब कुछ होने का आग्रह रखता है, वह मनुष्य 'अहं' की कल्पना से उत्पीड़ित होता है। 'मैं ही सब कुछ हूँ,' यह विचार मनुष्य के मस्तिष्क को विकृत कर देता है। विकृत मस्तिष्क अपनी इच्छाओं को सफल बनाने का आग्रही होता है। जब इच्छायें सफल नहीं होती तब वह रोष और आक्रोश से भर जाता है। दीनता से कराहता है। दूसरों के प्रति दुर्भाववाला बन जाता है। तू सोचना, आंतर निरीक्षण करना । यदि आग्रहों को छोड़कर सोचेगा तो सही दिशा प्राप्त होगी। मुझे तो यह विचार आता है कि तेरे दुराग्रहों से तेरा परिवार कितना त्रस्त होगा। मैं जानता हूँ कि तेरे माता-पिता को तुम्हारे प्रति गहरा स्नेह है, जब उनके प्रति तेरा आक्रोश वे देखते होंगे तब उनके हृदय में कितनी वेदना होती होगी? तुझे समझना चाहिए कि तेरे पिताजी और बड़े भाई के ऊपर कितनी जिम्मेदारियाँ हैं। उनको सबका खयाल कर निर्णय करने होते हैं। तुझे अभी जिम्मेदारियाँ निभाने का अनुभव नहीं है। तू अपना ही विचार करता है। वे सापेक्ष दृष्टि से सोचते हैं और निर्णय करते हैं, तू निरपेक्ष दृष्टि से सोचता है और निर्णय करता है। तू यदि अपनी जिम्मेदारी समझे तो अपने विचारों में भी परिवर्तन आ सकता है। For Private And Personal Use Only
SR No.009633
Book TitleJindgi Imtihan Leti Hai
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptasuri
PublisherMahavir Jain Aradhana Kendra Koba
Publication Year2009
Total Pages234
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size3 MB
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