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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जिंदगी इम्तिहान लेती है १०३ अपना रूप ग्रहण करते हैं, उसी तरह हमारा आन्तर आनंद भी तत्त्वप्रकाश से वृद्धि पाता है। बाह्य पदार्थ और बाह्य व्यक्ति पर अब आनंद निर्भर नहीं रहा। प्रिय-अप्रिय और अनुकूल-प्रतिकूल पर अब आनंद आधारित नहीं रहा। वर्षों तक यह मेरी उलझन बनी रही। प्रिय और अनुकूल के संयोग में आनंद अनुभव करता था, अप्रिय और प्रतिकूल के संयोग में विषाद होता था। प्रिय के वियोग में उदासीनता घेर लेती थी। इससे... उदासीनता से मुक्ति पाने को मन वर्षों से तड़पता था । प्रिय-अप्रिय में सम स्थिति चाहता था चित्त की। तप-त्याग और ज्ञान-ध्यान से भी मैं यही सम स्थिति प्राप्त करना चाहता था... परंतु असफल रहा! प्रिय और अनुकूल स्थिति ने मुझे जहाँ हँसाया था... अप्रिय और प्रतिकूल स्थिति ने मुझे रुलाया भी है। मैं हमेशा मेरी यह कमजोरी मानता रहा। मेरी विवशता समझता रहा... परंतु 'ज्ञानसार' के अनुचिंतन ने मेरी कमजोरी को मिटा दिया है। मेरी विवशता नष्ट कर दी है। परमात्मा ने मानो कि मेरी पुकार सुन ली है। परमात्मा की अचिन्त्य कृपा के बिना मात्र चिन्तन-अनुचिन्तन से मेरी दीनता... उदासीनता दूर नहीं हो सकती थी। मैं कई वर्षों तक परमात्मा से प्रार्थना करता रहा हूँ। मेरी प्रार्थना मानो कि सुन ली गई है। मुझे इससे अत्यंत प्रसन्नता है। सच्चे हृदय से की हुई परमात्म-प्रार्थना निष्फल नहीं जाती है, इसका मुझे अनुभव है। देर हो सकती है, परन्तु गलत नहीं है। परमात्मा से उनकी ही आज्ञाओं का पालन करने की क्षमता प्राप्त करने की प्रार्थना करना सर्वथा उचित है। चित्त को समस्थिति में रखना, उनकी ही आज्ञा है। उनकी परम कृपा से उस आज्ञा का पालन संभव है। इसलिए तुझे भी मैं यही कहता हूँ कि तू प्रार्थना के द्वारा अपनी चित्तस्थिति को सम बनाने का प्रयत्न कर | ___ अभी... अभी... थोड़े दिन पूर्व एक प्रश्न का स्वयंभू समाधान प्राप्त हुआ। मनुष्य की एक बहुत पुरानी आदत है कि वह दूसरों के पाप देखता है और अपने दुःख देखता है। दूसरों के पाप देखकर उनके प्रति द्वेष, तिरस्कार और धिक्कार जैसी मनोवृत्ति धारण करता है और अपने दुःखों को रोता फिरता है। अपने दु:खों को दूर करने के लिए अनेक पापाचरण भी करता है... फिर भी वह पाप तो दूसरे मनुष्यों के ही देखता है। इससे वह सदैव अशांत, अस्वस्थ और व्याकुल बना रहता है। __यदि मनुष्य को शांति, स्वस्थता और प्रसन्नता से जीवन व्यतीत करना है, तो उसको यह आदत बदलनी होगी। उसको पाप अपने स्वयं के देखने होंगे For Private And Personal Use Only
SR No.009633
Book TitleJindgi Imtihan Leti Hai
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptasuri
PublisherMahavir Jain Aradhana Kendra Koba
Publication Year2009
Total Pages234
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size3 MB
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