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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जिंदगी इम्तिहान लेती है ९४ प्रसंग एक ही होता है, भिन्न-भिन्न व्यक्ति भिन्न-भिन्न दृष्टि से उसको देखते हैं और सोचते हैं। एक पापकर्म बांधता है, दूसरा पाप-कर्म तोड़ता है! एक मन को बोझिल बनाता है, दूसरा मन को हलका बनाता है। एक हृदय को गन्दा करता है, दूसरा हृदय को पवित्र बनाता है ! पहले एक बात स्पष्ट कर दूँ : दुनिया में दो प्रकार की घटनाएँ घटती हैं : १. अपने जीवन को स्पर्श करने वाली २. दूसरों के जीवन को छूने वाली । एक घटना जब अपने जीवन को छूती हो, उस समय जो विचार किया जाता है, वही घटना दूसरे के जीवन को छूती हो तब वैसा विचार नहीं किया जाता, दूसरा ही विचार किया जाता है। एक उदाहरण से समझाता हूँ : रास्ते पर एक मनुष्य दूसरे को मार रहा है, तू देख रहा है, यह घटना तेरे जीवन को छूती नहीं है, यदि तू ऐसा सोचेगा कि : अच्छी लड़ाई हो रही है... देखने में मजा आ रहा है... अथवा 'इस दुष्ट को मारना ही चाहिए... ठीक मार खा रहा है... उसके पापकर्म के फल उसको भोगने दो...' तू व्यर्थ ही पापकर्म बाँधेगा। परंतु यदि तू सोचेगा कि : ओहो... कषायों की कैसी प्रबलता है ...? कषाय परवश जीव, कैसी जीवहिंसा कर देता है? एक समय ये दोनों मित्र थे... आज शत्रु बन गए ... संसार में कौन कायम मित्र रहता है? मेरा चले तो जाकर दोनों को शांत करूँ.. कषाय से बचा लूँ.. ।' ऐसे विचारों से तू कर्मनिर्जरा करेगा, पुण्यकर्म का बंध करेगा। मानों कि तू स्वयं रास्ते से गुजर रहा है, और किसी ने तुमको गाली बोल दी, अपशब्द बोल दिए, उस समय तू क्या सोचेगा ? तू बलवान है, गाली बोलने वाला निर्बल है, तू क्या करेगा? यदि तूने दूसरे अज्ञानी लोगों की तरह सोचा : 'कैसा नालायक है ... अभी एक चांटा मार दूँगा तो बत्तीसी बाहर आ जाएगी..' तो पापकर्म ही बंधेगे । ऐसे प्रसंग पर इस प्रकार सोचना चाहिए कि : 'बेचारा अपनी वचनशक्ति का दुरुपयोग कर रहा है... उसकी गाली मुझे चिपकती नहीं है... यदि मैं बिना द्वेष किए सुन लेता हूँ, तो मेरी कर्मनिर्जरा होती है... मुझे क्षमाधर्म का पालन करने का यह अवसर देता है...।' यदि अपने विचारों में क्रोध नहीं है, अभिमान नहीं मिला है, माया-कपट की मिलावट नहीं है, लोभ घुला - मिला नहीं है, तो पापकर्मों का बंध नहीं होगा । अपने विचारों में जीवमात्र के प्रति मैत्री, करुणा, प्रमोद और माध्यस्थ्य भाव ओतप्रोत कर दो। जिस विचार में इन चार भावों में से एक भी भाव होगा, विचार शुद्ध कहलाएगा। विचार पवित्र कहलाएगा । For Private And Personal Use Only
SR No.009633
Book TitleJindgi Imtihan Leti Hai
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptasuri
PublisherMahavir Jain Aradhana Kendra Koba
Publication Year2009
Total Pages234
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size3 MB
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