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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ७५ प्रवचन-८० 10 धर्मपुरुषार्थ करने के लिए भी साधन तो इन्द्रियाँ और शरीर पर ही रहेंगे! अतृप्त एवं अशक्त इन्द्रियोंवाला व्यक्ति शान्त मन से धर्मआराधना कर कैसे सकेगा? और मरते मरते...मुरझाये मन से कोई धर्मआराधना करता भी है तो उसमें जान नहीं होगी। जीवंतता प्रतीत नहीं होगी। ० वैषयिक-ऐन्द्रिक सुख-साधनों को एकत्र करने में विवेकहीन अन्ध-अनुकरण बढ़ रहा है। चमकीले, भड़कीले प्रदर्शन की वृत्ति से पूरा समाज पीड़ित है! और यह मनोवृत्ति आदमी को बरबाद कर डालती है! ० धार्मिकता का दावा रखनेवालों के घरों में भी टी.वी., ६ विडियो वगैरह अनेक प्रदूषण प्रविष्ट हो गये हैं! MO बाहरी खानपान ज्यों-ज्यों बढ़ा है त्यों-त्यों घर का खर्चा भी = बढ़ा और शरीर में रोग भी बढ़ने लगे। 98seen • प्रवचन : ८० परम कृपानिधि, महान् श्रुतधर आचार्य श्री हरिभद्रसूरिजी ने स्वरचित 'धर्मबिन्दु' ग्रन्थ में, गृहस्थ जीवन के सामान्य धर्मों का प्रतिपादन करते हुए, पचीसवाँ सामान्य धर्म बताया है 'परस्पर संकलित धर्म-अर्थ-काम का, परस्पर क्षति न हो उस प्रकार सेवन करना ।' गृहस्थ जीवन में जितना महत्त्व धर्मपुरुषार्थ का है, उतना ही महत्त्व अर्थपुरुषार्थ और कामपुरुषार्थ का है। तीन में से किसी एक पुरुषार्थ को भी क्षति नहीं होनी चाहिए। तीनों पुरुषार्थ एक-दूसरे के पूरक हैं। इसलिए तो ग्रन्थकार ने कहा : 'अन्योन्यानुबद्ध' तीनों पुरुषार्थ एक-दूसरे से अनुबद्ध हैं। 'काम' क्या है : अर्थपुरुषार्थ को ही प्रमुख मानकर जो मनुष्य दिन-रात अर्थोपार्जन में ही व्यस्त रहता है, वह मनुष्य धर्म और काम को कैसी क्षति पहुँचाता है, यह बात मैंने कल बतायी थी। आज, जो मनुष्य कामपुरुषार्थ को ही प्रमुख बनाकर दिन-रात भोग-विलास में ही लीन रहता है, वह मनुष्य धर्म को और अर्थ को कैसा नुकसान पहुंचाता है-यह बात करूँगा। For Private And Personal Use Only
SR No.009632
Book TitleDhammam Sarnam Pavajjami Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptasuri
PublisherMahavir Jain Aradhana Kendra Koba
Publication Year2010
Total Pages259
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Religion
File Size2 MB
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