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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रवचन-७९ कहिए, अब लाखों रुपये किस काम के रहे? अभी दो साल पूर्व उन डॉक्टर का देहावसान हो गया...शायद उनको केन्सर हो गया था। लाखों रुपये छोड़कर वह मरे | मानव जीवन की कौन-सी सफलता उन्होंने पायी? एक भी सफलता नहीं पायी...घोर निष्फलता पायी। जीवन हार गये। साध्य-साधन का भेद : धन-संपत्ति को जो लोग साधन नहीं, साध्य मान लेते हैं, ऐसे लोगों की दुर्दशा होती ही है। धन-संपत्ति को मात्र साधन के रूप में माननेवाले, धर्मपुरुषार्थ और कामपुरुषार्थ में धन का यथोचित विनियोग करते हैं। अर्थोपार्जन का उतना ही प्रयत्न करते हैं कि जिससे उनकी धर्माराधना अच्छी चलती रहे और इन्द्रियों के विषयसुख भी उचित रूप से भोगे जा सकें। धन-संपत्ति की तीव्र लालसा ने कितने घोर अनर्थ करवाये हैं, यह क्या समझाने की बात है? आज की दुनिया ही अर्थप्रधान बन गई है। सभी क्षेत्रों में अर्थ-प्रधानता छा गई है। हर व्यक्ति को श्रीमन्त हो जाना है। 'धर्म' को भुलाया जा रहा है। अर्थलोलुप मनुष्य के हृदय में धर्म को स्थान होता ही नहीं है। ___ आजीविका के लिए अर्थप्राप्ति करना, वह अर्थलोलुपता नहीं है। परिवार की पालना करने हेतु अर्थप्राप्ति करना वह तो गृहस्थ का कर्तव्य है। अर्थलोलुपता, जीवन में आवश्यक तत्त्व नहीं है। अर्थान्ध मनुष्य धर्मविमुख होता है। विवेकशून्य होता है। पापप्रिय होता है। धन-संपत्ति की लालसा से मनुष्य स्नेही-स्वजनों की हिंसा करने में हिचकिचाता नहीं है। झूठ और चोरी तो उसके श्वासोच्छ्वास में होती है। अर्थान्ध मनुष्य को न आत्मा का विचार होता है, न महात्मा का विचार होता है, न परमात्मा का विचार होता है। न उसको दूसरों के सुख-दुःख का विचार होता है, न उसको अपने स्नेही-स्वजनों के प्रति कर्तव्यों का बोध होता है। एक कबाड़ी राजा की बात! : विक्रम की ग्यारहवीं-बारहवीं शताब्दी में गुजरात का राजा सिद्धराज जयसिंह, ऐसा ही अर्थान्ध राजा था। उसको राज्यविस्तार की तीव्र लालसा थी। दूसरे राज्यों पर विजय पाने के लिए वह युद्ध करता ही रहता था। For Private And Personal Use Only
SR No.009632
Book TitleDhammam Sarnam Pavajjami Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptasuri
PublisherMahavir Jain Aradhana Kendra Koba
Publication Year2010
Total Pages259
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Religion
File Size2 MB
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