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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रवचन-९६ २४५ यदि आपको गृहस्थ जीवन के सामान्य धर्मों का पालन करना है तो आपको ज्ञानानन्दी बनना ही पड़ेगा। विषयों का उपभोग करना पड़े, यह दूसरी बात है, विषयानन्दी-पुद्गलानन्दी नहीं बनना है। यानी विषयोपभोग में आनन्द नहीं मानना है | परमात्म प्रीति और संसार भीति ही धर्मआराधना करवायेगी : ग्रन्थकार आचार्यदेव हरिभद्रसूरिजी ने गृहस्थ जीवन के सामान्य धर्मों का पालन करने का उपदेश दिया है, जो कि तीर्थंकरों की ही प्रेरणा है। उन सामान्य धर्मों का पालन तभी कर सकोगे जब आपके हृदय में परमात्मा के प्रति प्रीति पैदा होगी और विषयों के प्रति अरति पैदा होगी। दो बातें बराबर समझ लो १. परमात्मा के प्रति प्रीति। २. विषयों के प्रति अरति। दोनों बातें एक-दूसरे से संबंधित हैं। परमात्मा से प्रीति हो जाने पर विषयों के प्रति अरति हो ही जायेगी। विषयों के प्रति अरति पैदा होने पर परमात्मा से प्रीति बन जायेगी। दो में से एक बात बन जायेगी तो दूसरी बात तो बनने की ही है। और, ये दो बात बनने पर, जीवन में गुणात्मक धर्मों का पालन सहजता से व सरलता से होता रहेगा। सभा में से : विषयों के प्रति अरति का अर्थ वैराग्य है क्या? महाराजश्री : हाँ, वैराग्य जैसे व्यवहार धर्म में प्राथमिकता है इन ३५ सामान्य धर्मों की, वैसे भावात्मक धर्म में प्राथमिकता है वैराग्य की। वैराग्य भावात्मक धर्म है | भावात्मक धर्म की जड़ है वैराग्य। वैराग्य बाहर का नहीं, भीतर का जरूरी है : इसी ग्रन्थकार महर्षि ने 'योगदृष्टि-समुच्चय' नाम के ग्रन्थ में कहा है : 'भवोद्वेगश्च सहजः' योग की पहली दृष्टि में ही मनुष्य में सहज भवोद्वेग यानी वैराग्य प्रकट होता है। मोक्षमार्ग की आराधना का प्रारंभ वैराग्य से होता है। किसी भी धर्म का पालन करता है मनुष्य, भीतर में वैराग्य प्रकट होने पर ही धार्मिकता का प्रारंभ होता है। धन-संपत्ति के प्रति अरति का भाव प्रकटे बिना, न्यायसंपन्नता कैसे आयेगी? नीति और ईमानदारी कैसे आयेगी? लोभ-लालच के सामने वैरागी ही अड़िग For Private And Personal Use Only
SR No.009632
Book TitleDhammam Sarnam Pavajjami Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptasuri
PublisherMahavir Jain Aradhana Kendra Koba
Publication Year2010
Total Pages259
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Religion
File Size2 MB
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