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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रवचन-९० १८२ ऐसा सोचें कि : 'मुझे किसी के दोषों से मतलब नहीं है। मुझे तो गुणों से मतलब है.... दूसरों के दोष देखते-देखते तो मैं दोषों से भर गया हूँ। अब मुझे दोष नहीं देखने हैं। इस मनुष्यजीवन में मुझे गुणों का वैभव प्राप्त करना है। मुझे हंस बनकर गुण-मोती का चारा चुगना है। दूसरों के दोष देखने नहीं है, दोषानुवाद करना नहीं है। गुणों को ही देखना है और गुणानुवाद करना है। मेरे मन में भी गुणों का ही चिंतन करना है।' ___ गुणानुराग से, गुणपक्षपात से निकाचित पुण्यकर्म बंधते हैं। यह पहला बड़ा लाभ है। दूसरा लाभ है गुणों की प्राप्ति का। इस वर्तमान जन्म में गुणों की प्राप्ति होती है और आने वाले जन्म में भी गुणों की प्राप्ति होती है। गुणवानों के प्रति आदरभाव रखने से, उनकी प्रशंसा करने से, उनको अवसरोचित सहायता करने से और सदा अनुकूल प्रवृत्ति करने से, गुणवानों के साथ संपर्क होता है। दीर्घकाल तक संपर्क बने रहने से उनके गुण आप में आयेंगे ही। 'संपर्कजन्या गुणदोषाः।' संपर्क से गुणदोष पैदा होते हैं। गुणवानों के संपर्क से गुण पैदा होंगे। और गुणानुराग के पवित्र आशय से जो पुण्यकर्म बांधा होगा, वह पुण्यकर्म आने वाले जन्म में जब उदय में आयेगा, तब अच्छे गुणवान् परिवार में जन्म होगा। उच्च कुल, उच्च जाति, सुन्दर रूप, अपूर्व बल और बुद्धि के साथ साथ उत्तम गुणों की भी प्राप्ति होगी। सभा में से : गुणपक्षपात से इतना सब कुछ प्राप्त होता है क्या? महाराजश्री : हाँ, अवश्य प्राप्त होता है। गुणपक्षपात की शक्ति को आप लोग समझे नहीं है। गुणपक्षपात का आशय, चिन्तामणि रत्न की शक्ति से भी बहुत ज्यादा शक्तिशाली है। चिन्तामणि रत्न का प्रभाव तो आप जानते हैं न? सभा में से : जानते तो हैं, परन्तु वह रत्न मिल नहीं रहा है! महाराजश्री : कैसे मिलेगा? उत्तम वस्तु की प्राप्ति श्रेष्ठ पुण्यकर्म के उदय से होती है। श्रेष्ठ पुण्यकर्म लेकर जन्मे होते तो चिन्तामणि रत्न प्राप्त होता। खैर, अफसोस नहीं करना। चिन्तामणि रत्न से भी महान् शक्तिशाली रत्न आपको देता हूँ| वह है गुणपक्षपात | लेना है? तो ले लो। भविष्य को उज्ज्वल बनाना है तो गुणपक्षपाती बन जाओ। भले, आप गुणवान् न हों, परन्तु गुणवानों के प्रति आदर-प्रेम रखना शुरू करो। For Private And Personal Use Only
SR No.009632
Book TitleDhammam Sarnam Pavajjami Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptasuri
PublisherMahavir Jain Aradhana Kendra Koba
Publication Year2010
Total Pages259
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Religion
File Size2 MB
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