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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रवचन-८९ १६९ बोला : 'बाबूजी, मुझे घर में से यह पाँच रुपये की नोट मिली है।' उसने नोट मुझे दे दी। मैं नोट को देखने लगा...नौकर को देखने लगा...। मेरे मन में हलचल मची। 'मैं सज्जन या यह नौकर सज्जन? नौकर तो गरीब है...फिर भी कितना नीतिमान है। मैं श्रीमन्त होते हुए भी कितना अनीतिखोर हूँ? पाकिट में १४०० रुपये देखकर मैं ललचा गया और पाकिट मैंने रख लिया...।' मुझे मेरी अनीति बहुत अखरी। मैंने अखबार में आपका विज्ञापन पढ़ा था । उसमें आपका पता छपा हुआ था। मैंने तुरन्त निर्णय कर लिया कि पाकिट आपको लौटा दूँ। और, शीघ्र ही पाकिट लेकर आपके पास आया हूँ। पाकिट का मालिक किस्सा सुनकर आश्चर्यचकित हो गया। पाकिट में से सौ रुपये का नोट निकाल कर देने लगा...। उस सज्जन ने दो हाथ जोड़कर इनकार कर दिया। उसने कहा : 'इनाम का पात्र तो वह मेरा नौकर है...जिसने मुझे अनीति के पाप से बचाया । उसकी नीतिमत्ता ने मुझे नीतिमार्ग पर चलने की प्रेरणा दी।' जो श्रीमन्त नहीं था, जिसके पास कोई डिग्रियाँ नहीं थी, ऐसे नौकर में कैसी नीतिमत्ता और जो श्रीमन्त हैं, डिग्रीधारी हैं...समाज में इज़्ज़त रखते हैं...वे कितने बेईमान? बेईमानी पैदा होती है लोभ और तृष्णा में से। ० ज्यादा से ज्यादा पैसा प्राप्त करने की तृष्णा । ० सुन्दर स्त्री प्राप्त करने की तृष्णा। ० अधिक से अधिक यश प्राप्त करने की तृष्णा । ० सत्ता व पद प्राप्त करने की तृष्णा। ऐसी तृष्णाएँ ही मनुष्य को अनीति के मार्ग पर चलने को प्रेरित करती हैं। ज्यों-ज्यों उनकी उपलब्धियाँ बढ़ती जाती हैं, त्यों-त्यों तृष्णा बढ़ती जाती हैं। फिर अनीति का अभिनिवेश दृढ़ होता जाता है। लाभ से लोभ बढ़ता है : १. अधिक धन-संपत्ति कमाने की तृष्णा से चोरियाँ होती हैं, डाके डाले जाते हैं, रिश्वतखोरी बढ़ती है, स्मगलिंग-तस्करी बढ़ती है, धोखाधड़ी बढ़ती है। जब तक तृष्णा बनी रहेगी मनुष्य के मन में, यह सब चलने वाला है। कानून से यह सब बन्द होने वाला नहीं है। हृदय-परिवर्तन होने से ही यह सब हो सकता है। For Private And Personal Use Only
SR No.009632
Book TitleDhammam Sarnam Pavajjami Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptasuri
PublisherMahavir Jain Aradhana Kendra Koba
Publication Year2010
Total Pages259
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Religion
File Size2 MB
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