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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १५३ प्रवचन-८७ रही हैं। ये विधेयात्मक चिंतन की गहराई में पहुंचते हैं। आत्मानंद की अनुभूति करने लगते हैं। ९८ भाइयों ने कर्मों की पराधीनता तोड़ने के लिए संसार का त्याग किया... वे श्रमण बन गये! भगवान् ऋषभदेव के पास रहकर उन्होंने ज्ञान-ध्यान और तपश्चर्या से कर्मों के बंधन तोड़ने शुरू किये। चिंतन भी विधेयात्मक चाहिए : सोचो, शान्त दिमाग से सोचो आप लोग | धर्मश्रवण के बाद चिन्तन करना, विधेयात्मक चिन्तन करना कितना महत्त्वपूर्ण है! गये थे वे भरत से न्याययुद्ध करने की अनुमति लेने और बन गये श्रमण, कर्मों के साथ युद्ध करने के लिए! विधेयात्मक चिंतन का वह शुभ परिणाम था। बाहुबली तो भगवान के पास गये ही नहीं! उन्होंने तो भरत के साथ भयानक संग्राम खेला! संग्राम करते करते... मन में अचानक चिंतन उमड़ पड़ा...! जिस मुष्ठि से भरत पर प्रहार करने दौड़े थे उसी मुष्ठि से उन्होंने अपने सिर के बालों का लुंचन कर डाला और युद्धभूमि पर वे श्रमण बनकर खड़े रह गये। श्रवण से ही चिंतन हो, ऐसा नियम नहीं है। बिना धर्मश्रवण भी, आत्मा में स्वयंभू चिंतन प्रकट हो सकता है। बाहुबली श्रमण बनकर वहीं ही खड़े रह गए! वे भगवान ऋषभदेव के पास नहीं गये! क्यों नहीं गये, वह बात जानते हो न? चूँकि वहाँ जाने पर ९८ भाइयों को, जो कि केवलज्ञानी बन गये थे, उनको वंदन करना पड़ता! श्रमण जीवन का वैसा व्यवहार होता है। उन्होंने निषेधात्मक रूप से सोचा : 'अभी मैं भगवंत के पास नहीं जाऊँगा, वहाँ जाने से मेरे छोटे ९८ भाइयों को वंदना करनी पड़ेगी...| मुझे केवलज्ञान होगा, तब जाऊँगा...| तब मुझे किसी को वंदन नहीं करना होगा!' उस समय उनको कौन वहाँ समझाने वाला था कि जब तक आपके मन में इस प्रकार का निषेधात्मक चिंतन रहेगा तब तक आपको केवलज्ञान होनेवाला ही नहीं है! केवलज्ञान होता है विधेयात्मक धर्मचिंतन से।' __ जिन्होंने अल्प क्षणों के धर्मचिंतन से राज्य का त्याग कर दिया, वैषयिक सुखों का त्याग कर दिया... भरत के प्रति जो रोष था, उस रोष का त्याग कर दिया और जो श्रमण-अणगार बन गये... वे मान-अभिमान का त्याग नहीं कर पाये! 'मैं बड़ा हूँ और मेरे ९८ भाई छोटे हैं...' यह बड़प्पन का खयाल भी For Private And Personal Use Only
SR No.009632
Book TitleDhammam Sarnam Pavajjami Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptasuri
PublisherMahavir Jain Aradhana Kendra Koba
Publication Year2010
Total Pages259
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Religion
File Size2 MB
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