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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रवचन-८५ १२६ विषय में भी गंभीरता से सोचा गया है। ऐसा मत सोचना कि 'अपन को तो धर्मग्रंथ सुनने से मतलब है न... जो सुनाते हो... उनसे सुन लो!' कुछ भी करें, सोच कर करें : ___ क्या आपने कभी ऐसा सोचा है कि 'अपन को तो दवाई से मतलब है न? किसी भी डॉक्टर से ले लें...।' क्या आपने कभी ऐसा सोचा है कि 'अपन को तो कोर्ट में केस करना है न? किसी भी वकील को सौंप दें...।' नहीं, वहाँ तो आप डॉक्टर की और वकील की 'क्वालिटी' देखते हैं। प्रसिद्ध और विशेषज्ञ डॉक्टर-वकील पसंद करते हो। वैसे, धर्मशास्त्र सुनाने वाले कैसे होने चाहिए, वह भी जान लेना चाहिए। धर्मशास्त्रों का उपदेशक हर कोई व्यक्ति नहीं बन सकता है। उपदेशक होने की, बनने की तमन्ना होने मात्र से, अथवा उपदेश-कला प्राप्त होने मात्र से उपदेशक नहीं बना जा सकता है। बुद्ध और अंकमाल : ___ भगवान बुद्ध के पास एक श्रीमन्त युवक ने जाकर कहा : 'भगवन, मेरी इच्छा दुनिया की सेवा करने की है। आप चाहें वहाँ मुझे भेज दें, मैं वहाँ जाकर लोगों को धर्म का उपदेश दूंगा।' बुद्ध उस युवक अंकमाल को जानते थे। उन्होंने कहा : 'अंकमाल संसार को देने से पूर्व यह सोचना चाहिए कि अपने पास कुछ देने को है भी या नहीं। पहले अपनी योग्यता बढ़ाने का प्रयत्न करो। संसार को उपदेश बाद में देने का है।' __अंकमाल ने बुद्ध को वंदना की और चला गया। उसने दस वर्ष तक कठोर परिश्रम कर कलाएँ प्राप्त की। सारे मगध देश में वह कलाविशारद के रूप में प्रसिद्ध हुआ। देश में उसकी प्रशंसा होने लगी। उसका मन मान-सम्मान और अभिमान से भर गया। मान-सम्मान मिलने पर भी जो अभिमानी नहीं बनते, वे तो सत ही होते हैं। अंकमाल भगवान् बुद्ध के पास गया, वंदना की और कहा : ___'भगवन्! अब मैं संसार के हर मनुष्य को कुछ न कुछ अवश्य दे सकूँगा। मैं २४ कलाओं में पारंगत बना हूँ।' For Private And Personal Use Only
SR No.009632
Book TitleDhammam Sarnam Pavajjami Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptasuri
PublisherMahavir Jain Aradhana Kendra Koba
Publication Year2010
Total Pages259
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Religion
File Size2 MB
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