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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रवचन-८१ ९४ महाराजश्री : तो फिर मानव-समाज विनाश की ओर आगे बढ़ रहा है - यह बात मान लो। कुछ अंश में जितेन्द्रिय बने बिना धर्मपुरुषार्थ संभव ही नहीं है। दिशा ही बदल चुकी है : ___ मैं जानता हूँ-आज-कल/कुछ वर्षों से अपने समाज में भी खाना-पीना बिगड़ा है। सर्वथा निषिद्ध पदार्थों का सेवन बढ़ता जा रहा है। भोगसुखवैषयिक सुख ही जीवन का सर्वस्व माना जा रहा है। बिना किसी के बदले, सहजता से समाज-रचना बदलती जा रही है । अर्थ और काम, जीवन के केन्द्र बन गये हैं। परन्तु, साथ साथ यह भी मानना होगा कि आज मनुष्य जितना संतप्त है, अशान्त है, बेचैन है...शायद ही पहले होगा। असंख्य वर्षों से हमारे देश की संस्कृति के केन्द्र स्थान में धर्म रहा है। अर्थ और काम साधन के रूप में रहे हैं। इसलिए हमारे देश का मनुष्य भीतर से हमेशा श्रीमन्त रहता था। देश के साधु-संत और संन्यासी गाँव-गाँव, नगर-नगर परिभ्रमण कर प्रजा को धर्मअर्थ और काम का औचित्य बताते हुए मनुष्य को शान्ति, समता और सहनशीलता प्रदान करते थे। शान्ति का संबंध धर्म से है, समता का संबंध धर्म से है, सहनशीलता का संबंध धर्म से है, उदारता-गंभीरता का संबंध धर्म से है। धर्म यदि जीवन का केन्द्र बनता है तो शान्ति-समता सहजता से आ जाते हैं। सहनशीलताउदारता-गंभीरता वगैरह गुण स्वाभाविकता से आ जाते हैं। यदि मनुष्य ज्यादा कामासक्त बनता है...ज्यादा अर्थ-लोलुप बनता है तो वह अशान्त बनेगा ही, सन्तप्त बनेगा ही, चूँकि तीव्र कामासक्ति और तीव्र अर्थलोलुपता, मनुष्य के जीवन में धर्म को रहने ही नहीं देती। धर्म नहीं तो शान्ति नहीं! धर्म नहीं तो समता नहीं! किसे छोड़ना, किसे बचाना? : धर्म का महत्त्व समझो और जीवन में धर्म का प्रयत्न से जतन करो। ग्रन्थकार आचार्यश्री कहते हैं : अन्यतरबाधासंभवे मूलाबाधा। ० यदि कामपुरुषार्थ (वैषयिक सुखभोग) को छोड़ना पड़े तो छोड़ देना, परन्तु अर्थपुरुषार्थ एवं धर्मपुरुषार्थ को नहीं छोड़ना। For Private And Personal Use Only
SR No.009632
Book TitleDhammam Sarnam Pavajjami Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptasuri
PublisherMahavir Jain Aradhana Kendra Koba
Publication Year2010
Total Pages259
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Religion
File Size2 MB
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