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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५५ प्रवचन-५३ चन्दन की सुवास पाता है, उसी प्रकार हे जिनेश्वर, तेरे संपर्क से, मैं भी तेरे गुणों की सुवास प्राप्त करूँगा।' नीम का वृक्ष करता कुछ नहीं है, मात्र चन्दन-वृक्ष के पास खड़ा रहता है....इससे भी वह चन्दन की सुवास प्राप्त कर लेता है! वैसे आप कुछ भी नहीं करो, गुणवानों के पास बैठे रहो, तो भी गुणों की सुवास प्राप्त कर सकते हो! गुणीजनों का त्याग कभी मत करो : __ग्रन्थकार ने एक शब्द का प्रयोग किया है : परिग्रह! गुणवानों का परिग्रह करो! श्रेष्ठ गुणवाले साधुपुरुषों का, सत्पुरूषों का परिग्रह करो! 'परिग्रह' का अर्थ जानते हो? परिग्रह का अर्थ है मूर्छा! गाढ़ ममत्व! बहुत महत्त्वपूर्ण शब्द का प्रयोग किया है! श्रेष्ठ गुणवाले पुरुषों का गाढ़ ममत्व करने को कहा है। धनसंपत्ति का परिग्रह करनेवाला जैसे धनसंपत्ति पर गाढ़ ममत्व करता है, वैसे गुणवान् पुरुषों के प्रति गाढ़ ममत्व होना चाहिए! कभी उनको छोना नहीं! कैसी भी परिस्थिति हो, गुणवानों का त्याग नहीं करना। यह परिग्रह तभी कर सकोगे जब आपकी गुणदृष्टि अखंड रहेगी। जिस क्षण गुणदृष्टि चली गई और दोषदृष्टि आ गई उसी क्षण वह परिग्रह छूट जायेगा! जिस व्यक्ति को आप गुणवान् मानते होंगे उस व्यक्ति को दोषवाला देखने लगोगे! इस संसार में कोई भी व्यक्ति संपूर्ण गुणमय तो मिलेगा नहीं। संसारी जीवात्मा अनन्त दोषों से भी युक्त ही होते हैं! गुणवानों में भी दोष तो होंगे ही! दोष होने पर भी देखने के नहीं हैं। जिस प्रकार धनसंपत्ति का परिग्रही मनुष्य, धनसंपत्ति में दोष होने पर भी नहीं मानता है! धनसंपत्ति में उसको दोष दिखते ही नहीं हैं! वैसे गुणवान् पुरुषों में दोष दिखने ही नहीं चाहिए! कोई व्यक्ति दोष बताये, तो भी दोष नहीं दिखे! सर्वगुण-संपन्न ही दिखे वह सत्पुरुष! ऐसा परिग्रह होना चाहिए। दोषदर्शन अर्थात् मैत्रीभाव को 'माइनस' करना : दोषदर्शन की आदतवाला मनुष्य इस सामान्य धर्म का पालन नहीं कर सकता है। उसको तो इस दुनिया में कोई गुणवान् व्यक्ति ही नहीं दिखेगा! चारों ओर दोषों का अन्धकार ही अन्धकार! वह स्वयं भी दोषों के अन्धकार से भर जायेगा और उसके चारों ओर अन्धकार छाया रहेगा। वह दोषों का ही परिग्रही बनेगा! उसका सम्बन्ध भी दोषवालों के साथ ही होगा! वह किसी के साथ स्थायी संबंध नहीं बना पायेगा। क्योंकि दोषदर्शन में से द्वेष पैदा होता For Private And Personal Use Only
SR No.009631
Book TitleDhammam Sarnam Pavajjami Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptasuri
PublisherMahavir Jain Aradhana Kendra Koba
Publication Year2010
Total Pages274
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Religion
File Size2 MB
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