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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रवचन-७१ २४३ - भोजन करते समय अपनी शारीरिक प्रकृति का ख्याल करना नितांत आवश्यक है। वात-पित्त और कफ - इन तीन प्रकृतियों को जान लेना चाहिए। कब खाना? क्या खाना? कितना खाना? कैसे खाना? वगैरह बातों का ध्यान रखना नितांत आवश्यक है। • बिनजरुरी खाने-पीने से तन के रोग बढ़ते हैं, शरीर में सुस्ती फैलती है और मन भी मंद हो जाता है। स्वस्थ शरीर धर्माराधना के लिए सहायक बनता है। शरीर की स्वस्थता मन की प्रसन्नता में सहायक बनती है। शरीरस्वास्थ्य की उपेक्षा मत करो। संतुलित और नियंत्रित आहार-व्यवस्था को जीवन में स्थान देना जरुरी है। इतनी हद तक मत खाओ-पीओ कि तबीयत बिगड़ जाये! 'माल अपना और पेट पराया...' नहीं पर 'पेट अपना है, माल पराया है...' यह याद रखो। पेट को पेट ही रहने दो। इसे गोदाम या कचरा पेटी मत बना डालो कि 'जो आया डाल दिया, जब आया...जैसा आया, डाल दिया!' र प्रवचन : ७१ परम कृपानिधि, महान् श्रुतधर, आचार्यश्री हरिभद्रसूरिजी, स्वरचित 'धर्मबिन्दु' ग्रन्थ में, गृहस्थ जीवन के सामान्य धर्मों का प्रतिपादन करते हुए, बीसवाँ सामान्य धर्म बताते हैं प्रकृति के अनुकूल समय पर भोजन। __ भोजन का तन-मन के साथ प्रगाढ़ संबंध है। भोजन के बिना तन शिथिल हो जाता है, मन निर्बल हो जाता है। इसलिए हर व्यक्ति को भोजन तो करना ही पड़ता है। परन्तु यदि मनुष्य अपनी शारीरिक प्रकृति से प्रतिकूल भोजन करता है और अयोग्य समय में भोजन करता है तो वह रोगों से आक्रान्त हो जाता है और मर भी जाता है। मानसिक दृष्टि से भी वह अशान्त, संतप्त और विकारग्रस्त हो जाता है। इसीलिए ग्रन्थकार आचार्यश्री प्रकृति को अनुकूल और योग्य समय पर भोजन करने की बात कहते हैं। For Private And Personal Use Only
SR No.009631
Book TitleDhammam Sarnam Pavajjami Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptasuri
PublisherMahavir Jain Aradhana Kendra Koba
Publication Year2010
Total Pages274
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Religion
File Size2 MB
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