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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २२२ प्रवचन-६९ की प्राप्ति हुई है। यदि आप परमात्मा के स्वरूप को समझने का प्रयास करें, तो परमात्मा के प्रति भीतरी बहुमान जगेगा । आन्तरिक प्रीति जाग्रत होगी। जिसके प्रति आन्तरिक प्रीति पैदा होती है उनका - ० दर्शन किये बिना चैन नहीं मिलता, ० पूजन किये बिना तृप्ति नहीं होती, ० स्तवन किये बिना आह्लाद नहीं होता! परमात्मा के प्रति प्रीति जगी है हृदय में? प्रीतिपूर्ण हृदय परमात्मा की सच्ची पहचान कर सकता है। यों तो परमात्मतत्त्व अगम-अगोचर तत्त्व है। इन्द्रियों से और मन से अगोचर है। कोई भी इन्द्रिय का विषय 'परमात्म' नहीं हैं। मन का विषय भी ‘परमात्मा' नहीं है। हाँ, परमात्मा तक पहुँचने का माध्यम अवश्य है मन! पवित्र और निर्मल मन । सभा में से : परमात्मा तो इस समय हैं नहीं, तो पूजा कैसे करें! महाराजश्री : परमात्मा की प्रतिमा में परमात्मा के दर्शन करने के हैं। परमात्मा के मन्दिर इसीलिए तो बनते हैं। परमात्मा की प्रतिमाएँ भी इसीलिए बनती हैं। इस अवसर्पिणीकाल में प्रथम तीर्थंकर श्री ऋषभदेव के पुत्र भरत चक्रवर्ती ने अष्टापद के पहाड़ पर, जहाँ परमात्मा ऋषभदेव का निर्वाण हुआ था, वहाँ मन्दिर बनवाया था और चौबीस तीर्थंकर की प्रतिमाएं स्थापित की थीं। धर्मग्रन्थों में यह बात पढ़ने को मिलती है। इसलिए कह सकते हैं कि मन्दिर और मूर्ति की संस्कृति असंख्य वर्ष पुरानी है। प्रतिमा को परमात्मा मानकर, तन और मन को उसमें एकाग्र करें। तन-मन को परमात्मा में स्थिर करने के लिए विधिपूर्वक मन्दिर जायँ और दर्शन-पूजन-स्तवन करें। मन्दिर कैसे जायें? घर से जब मन्दिर जाने के लिए निकलें तभी से अपने मन को परमात्मा के विचारों में जोड़ दें। हालाँकि, जिस हृदय में परमात्मप्रीति की शहनाई बजती रहती है, उसको अपने मन को परमात्मा के विचारों में जोड़ना नहीं पड़ता है, जुड़ा हुआ ही होता है। अर्थात् सहजता से जुड़ जाता है। परमात्मा के प्रति प्रीति जाग्रत होने के बाद, मनुष्य बाहर से दुनिया की कोई भी प्रवृत्ति करें, पर उसका मन तो परमात्मा के सान्निध्य में ही रहेगा। इसलिए आप लोगों से मैं कहता हूँ कि : 'सर्वप्रथम आप परमात्मा से प्रीति बाँधे । परमात्मा से प्रेम करें।' For Private And Personal Use Only
SR No.009631
Book TitleDhammam Sarnam Pavajjami Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptasuri
PublisherMahavir Jain Aradhana Kendra Koba
Publication Year2010
Total Pages274
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Religion
File Size2 MB
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