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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रवचन- ६७ २०६ ज्यादातर ऐसा देखने में आता है कि मनुष्य अपने निकट के स्नेहीजनों के साथ ही ज्यादा उग्र-कटु शब्दप्रयोग करता रहता है। जिनके साथ उनको जीवन बिताने का होता है, जो जीवनसाथी होते हैं, उन्हीं के साथ अशान्तिजनक शब्दों का प्रयोग! कितनी घोर मूर्खता है यह? बाहर के लोगों के साथ प्रिय शब्दों का व्यवहार और घर के लोगों से कटु शब्दों का व्यवहार ! क्या उचित लगता है यह आपको? घरवालों के साथ भद्र वाणी- व्यवहार करें तो आपत्ति क्या है ? घरवालों के मन उद्विग्न रखने में लाभ क्या है ? घरवाले उद्विग्न रहेंगे तो - १. वे आपको सुख-शान्ति नहीं दे सकेंगे। २. उनकी धर्माराधना शान्तचित्त से नहीं होगी । ३. घर की शोभा घटती जायेगी । ४. कोई आत्महत्या भी कर सकता है। ५. आपकी धर्माराधना भी स्थिरचित्त से नहीं होगी । ६. सभी लोग आर्तध्यान - रौद्रध्यान करते रहेंगे । ७. इससे पापकर्म बंधते रहेंगे। ८. मित्र इत्यादि भी घर में नहीं आयेंगे। ९. मेहमानों का आदर-सत्कार नहीं होगा । १०. आपके प्रति किसी का प्रेम नहीं रहेगा। क्या इतने नुकसान सहन करके भी आप उग्र शब्दों का प्रयोग करते रहेंगे? जरा दिमाग से सोचो। रुको और वचन-प्रयोग सुधारने का संकल्प करो । हाँ, आप सुधार सकते हो आपके वचन-प्रयोग को । आप स्वयं पर विश्वास करें। आप वैसा ही बोलें.... कि आपके बोले हुए शब्दों के नीचे आप अपने हस्ताक्षर कर सकें। आपके वचन कोई लिख ले और आपको कहे कि 'इस कागज पर हस्ताक्षर कर दें, तो आप बिना हिचकिचाहट के हस्ताक्षर कर दें ! बोलने में इतनी सावधानी रखें।' ‘धर्मबिन्दु' ग्रन्थ के टीकाकार आचार्यश्री ने बड़ी महत्त्वपूर्ण बात कह दी है : ‘परोद्वेगहेतोर्हि पुरुषस्य न क्वापि समाधिलाभोऽस्ति, अनुरूपफलप्रदत्वात् सर्वप्रवृत्तिनाम्।' दूसरों को उद्वेग - अशान्ति देने के कारण ही मनुष्य को कहीं भी शान्ति प्राप्त नहीं होती है। सभी प्रवृत्तियों का अनुरूप फल होता है। जैसा घोष, वैसा प्रतिघोष! जैसा प्रदान वैसा आदान! आप दूसरों को शान्ति दोगे तो For Private And Personal Use Only
SR No.009631
Book TitleDhammam Sarnam Pavajjami Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptasuri
PublisherMahavir Jain Aradhana Kendra Koba
Publication Year2010
Total Pages274
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Religion
File Size2 MB
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