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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रवचन-५० म . पाप करना गुनाह है.... पर पाप करके इतराना, खुश होना बड़ा गुनाह है। पापाचरण की सजा मिलती है...परंतु पापाचरण में खुश होने की सजा तो बड़ी लम्बी और कठिन मिलती है। हर्ष को, खुशी को इस दृष्टिकोण से शत्रु मानना चाहिए। आत्मविकास में और आत्मविशुद्धि में सहायक हो वैसा ही सुनो, वैसा ही देखो, वैसा ही पढ़ो, वैसा ही आहार ग्रहण करो। आत्मा को बेहोश बना डाले वैसी सुगंध से दूर रहो...तनमन को मलिन बनाये वैसी दुर्गन्ध से भी दूर रहो। इतने मुलायम या इतने कमजोर मत बनो कि धर्मसाधना करने से मन कतराता रहे। • मन को विकृत बनाये, वैसे तमाम स्पर्श करना छोड़ दो! • इन्द्रियों को तनिक भी उत्तेजित करे, वैसी हरकतों से दूर रहो। प्रवचन : ५० परम कृपानिधि, महान् श्रुतधर, पूज्य आचार्यदेव श्री हरिभद्रसूरीश्वरजी स्वरचित 'धर्मबिन्दु' ग्रन्थ में, गृहस्थ-जीवन का सामान्य धर्म बता रहे हैं। प्राथमिक धर्म समझा रहे हैं। जिस व्यक्ति के जीवन में यह प्राथमिक धर्म ओतप्रोत हो जाता है, उस व्यक्ति की योग्यता बन जाती है विशेष धर्म के पुरूषार्थ की। विशिष्ट धर्मपुरूषार्थ सफलता प्राप्त करता है और जीवात्मा परमात्मा बन जाता है। गृहस्थ-जीवन में भी मनुष्य को कुछ अंश में इन्द्रियविजेता बनना होगा, यदि उसे आत्म-कल्याण की साधना करनी है तो। इन्द्रियविजेता बनने के लिए उसको अपने आंतर शत्रुओं की पहचान कर, शत्रुओं को अपनी आत्मभूमि से खदेड़ देना होगा। आन्तरिक शत्रुओं पर विजय पाना होगा। काम-क्रोधलोभ-मद-मान और हर्ष - ये छह आन्तरिक शत्रु हैं। पहले पाँच शत्रुओं का परिचय तो आपको दे दिया, आज हर्ष-शत्रु का परिचय देना है। हाँ, हर्ष भी अपना शत्रु है! जैसे क्रोध शत्रु है, वैसे हर्ष भी शत्रु है। For Private And Personal Use Only
SR No.009631
Book TitleDhammam Sarnam Pavajjami Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptasuri
PublisherMahavir Jain Aradhana Kendra Koba
Publication Year2010
Total Pages274
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Religion
File Size2 MB
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