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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रवचन-६६ १९३ प्राणान्त में अपने स्वीकृत सत्य का त्याग नहीं करते।' मैं कैसे इस श्रामण्य का-साधुता का त्याग करूँ? हाँ, यदि आप सबका मेरे प्रति स्नेह है, प्रेम है, तो आप सभी श्रामण्य को स्वीकार करें। मोक्षमार्ग पर चलें, तो मैं आनन्दित बनूँगा। आपके अपार उपकारों का तनिक भी प्रत्युपकार करने का आश्वासन लूँगा। सोमदेव ने कहा : 'वत्स, तेरी बातें सच्ची हैं। मैं तो अभी ही तेरा यह दुष्कर श्रमण जीवन अंगीकार करने को तैयार हूँ, परन्तु तेरी यह माता तो गृहस्थावास में रत है | पुत्री-दामाद-बच्चे....वगैरह के लालनपालन में निमग्न है। वह कैसे भवसागर तैर सकती है? वह कैसे साध्वी बन सकती है?' पिता के वचनों से आर्यरक्षित का चित्त प्रसन्न हुआ। वह सोचते हैं : 'मिथ्यात्व से मोहित पिताजी यदि प्रबुद्ध बनें तो उनकी आत्मा उज्ज्वल बन जाय | माता तो बुद्ध है ही। उनके पुण्यप्रभाव से तो मुझे यह मोक्षमार्ग मिला है!' __ आर्यरक्षित ने माता के सामने देखा और कहा : 'हे जननी! पिताजी की बात सोचने जैसी है। वे तुझे दुर्बोधा समझते हैं! मैं तुझे ज्ञानमहोदधि मानता हूँ| तेरे पास ज्ञान का प्रकाश है। तू महासत्त्वा है। तेरी ही कृपा से मैंने 'दृष्टिवाद' का ज्ञान पाया है....इस मोक्षमार्ग को पाया है और तेरी ही कृपा से मुझे श्री वज्रस्वामी जैसे विद्यागुरु मिल गये! १० पूर्वो का जिनके पास ज्ञान है और दिव्य शक्तियों के जो भंडार हैं। 'हे माता, धन्य है श्री वज्रस्वामी की माता सुनन्दा को! जिसने वज्र जैसे पुत्र को जन्म दिया! जब पुत्र ज्यादा रोने लगा, तब छह महीने की उम्र के पुत्र को दे दिया उसके पिता मुनिराज को! हाँ, जब वज्र माता के उदर में थे तभी उसके पिता श्रमण बन गये थे। तीन वर्ष की उम्र तक वे साध्वीजी के उपाश्रय में रहे। बाद में सुनन्दा ने पुत्र को वापस लेने के लिए झगड़ा किया....परन्तु वज्रस्वामी ने गुरु के पास ही रहने का निर्णय किया था। राजा ने फैसला दे दिया कि 'वज्र गुरुदेव के पास रहेगा!' । 'मैं तुझे सुनन्दा से भी बढ़कर माता मानता हूँ। तूने स्वयं मुझे श्री तोसलीपुत्र आचार्यदेव के पास भेजा! तूने मुझ पर निःसीम उपकार किया!' ____ माता ने कहा : 'हे वत्स, तेरे सरल हृदयी पिताजी सत्य कहते हैं। वास्तव में मैं कुटुम्बपालन में व्यग्र हूँ और आर्त हूँ | महाव्रतों का पालन करने के लिए मैं कैसे समर्थ बनूँ? परन्तु तेरे प्रति मेरा अपार स्नेह है। तू मुझे ही सर्वप्रथम For Private And Personal Use Only
SR No.009631
Book TitleDhammam Sarnam Pavajjami Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptasuri
PublisherMahavir Jain Aradhana Kendra Koba
Publication Year2010
Total Pages274
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Religion
File Size2 MB
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