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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रवचन-६६ १९१ रुद्रसोमा आर्यरक्षित को विस्फारित नयनों से देखती रही। प्रेम और आदर था रुद्रसोमा के नयनों में! अपने पुत्र को जैन साधु के वेश में देखकर उत्कट रोमांच का अनुभव करती हुई रुद्रसोमा....घर में जाकर सोमदेव को बुला लाई। सोमदेव अपने दो पुत्रों को जैनसाधु के वेश में देखते हैं परन्तु उनके हृदय में किसी वेश के प्रति द्वेष नहीं था। पुत्रस्नेह से उनका हृदय भर आया और उन्होंने आर्यरक्षित को अपने बाहुपाश में जकड़ लिया। आँखें हर्षाश्रु से छलकने लगीं। उन्होंने कहा : 'हे वत्स, तू क्यों शीघ्र नगर में आ गया? मैं तेरा प्रवेश-महोत्सव मनाता....! परन्तु हाँ, अपनी विरहव्याकुल माता को मिलने की उत्सुकता होगी! समझ गया! परन्तु, अभी तू वापस नगर के बाह्योद्यान में चला जा। मैं जाकर राजा को निवेदन करता हूँ| नगरजनों के भव्य उल्लास के साथ तेरा स्वागत करवाऊँगा। फिर, घर आकर इस श्रमण-वेश का त्याग कर देना और गृहस्थाश्रम का पालन करना | मैंने तेरे लिए एक अच्छे खानदान घराने की सुशील कन्या भी देखी हुई है। तू उससे शादी करना....जिससे तेरी माँ भी खुश होगी। धनार्जन करने का पुरुषार्थ करने की आवश्यकता नहीं है.... क्योंकि मेरे पास अपनी सात पीढ़ी तक भी कम नहीं हो उतनी सम्पत्ति है। राजसभा में पुरोहित-पद पर महाराजा तुझे स्थापित करेंगे। मुझसे भी तू सवाया पुरोहित सिद्ध होगा। तेरी ज्ञानश्री तुझे सारे देश में प्रसिद्ध करेगी। संसार के सभी सुख तुझे प्राप्त होंगे! मैं और तेरी माता, हम वानप्रस्थाश्रम को स्वीकार करेंगे।' कोई संबंध शाश्वत् नहीं है : ___ श्री आर्यरक्षित पिता के रागभरे....मोहभरे वचन सुनते रहे। वे जानते थे कि पिता का पुत्रस्नेह ही ऐसे वचन बुलवा रहा है। पिता का स्वजनमोह-पुत्रमोह दूर करने की दृष्टि से उन्होंने कहा : ___ हे तात, प्रति जन्म में माता....पिता....भ्राता....पुत्री....पुत्र.... वगैरह प्राप्त होते हैं। पशुयोनि में भी यह सब प्राप्त होता है....। विद्वान् पुरुष....ज्ञानी पुरुष इन संबंधों में मोह नहीं कर सकता। कोई संबंध शाश्वत् नहीं है, कोई संबंध अविनाशी नहीं है। 'संयोगा: वियोगान्ता', संयोग का वियोग होता ही है। इसलिए आप पुत्रस्नेह में बंधे नहीं। आप जन्मजन्मान्तर की दृष्टि से सोचें। माता मरकर पुत्री बनती है....बहन बनती है....भार्या बनती है....। पुत्र मरकर For Private And Personal Use Only
SR No.009631
Book TitleDhammam Sarnam Pavajjami Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptasuri
PublisherMahavir Jain Aradhana Kendra Koba
Publication Year2010
Total Pages274
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Religion
File Size2 MB
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