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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रवचन-४९ स्वतंत्र राज्य बाँट दिये थे। बाद में जब भरत ने चक्रवर्ती राजा बनने के लिए अपने छोटे ९९ भाइयों को अपने आज्ञांकित राजा बनने की आज्ञा फरमाई, तब बाहुबली के अलावा ९८ भाई तो भगवान ऋषभदेव की राय लेने गये और वहीं पर संसार का त्याग कर भगवान के चरणों में जीवन समर्पित कर दिया! परन्तु बाहुबली भगवान की राय लेने नहीं गये । भरत के दूत को धुत्कार दिया और फिर तो दो भाइयों के बीच घमासान युद्ध हुआ। सभी प्रकार के युद्ध में जब भरत हारते गये तब उन्होंने अपने अंतिम शस्त्र 'चक्ररत्न' को बाहुबली पर फेंका। परन्तु 'चक्ररत्न' समान गोत्रवालों की हत्या नहीं करता है, इसलिए चक्ररत्न बाहुबली को प्रदक्षिणा देकर वापस भरत के हाथ में आ गया। वास्तव में, भरत को बाहुबली पर चक्ररत्न नहीं छोड़ना था, वह तो अन्याय था, युद्ध के नियमों से विपरीत बात थी। इससे बाहुबली अत्यन्त क्रुद्ध हुए और उन्होंने भरत पर मुष्ठिप्रहार करने का सोचा | वे भरत की तरफ दौड़े, परन्तु अचानक उनके मन में विचार आया कि 'इस मुष्ठिप्रहार से भरत जमीन में धंस जायेगा, मेरे हाथ से भ्रातृहत्या हो जायेगी, कितना बड़ा पाप....नहीं, नहीं! राज्य के लिए मुझे ऐसा पाप नहीं करना चाहिए! उनका मन विरक्त हो गया। वे रास्ते में ही रूक गये। प्रहार करने के लिए जो मुष्ठि उठायी थी, उसी मुष्ठि से उन्होंने अपने मस्तक के बालों का लुंचन कर दिया....वे 'श्रमण' बन गये। सर्वत्यागी श्रमण बन गये। परन्तु वहाँ से सीधे भगवान ऋषभदेव के पास नहीं गये। 'अहं' को मारना मुश्किल है : ___ बाहुबली के मन में विचार आया : 'यदि मैं अभी भगवान के पास जाऊँगा तो मुझे मेरे से छोटे ९८ भाइयों को वन्दना करनी पड़ेगी। मैं बड़ा हूँ....और छोटे भाइयों को कैसे वंदना करूँ? हालाँकि वे मेरे ९८ भाई, मेरे से पूर्व प्रव्रजित हैं, उन्हें केवलज्ञान की प्राप्ति हो गई है, इसलिए यदि मैं वहाँ जाऊँगा तो मुझे वंदना करनी पड़ेगी। परन्तु केवलज्ञानी एक-दूसरे को वन्दना नहीं करते हैं! अतः मैं केवलज्ञानी बन कर ही जाऊँगा! ताकि मुझे वहाँ पर लघुभ्राताओं को वन्दना नहीं करनी पड़ेगी। यही तो अभिमान था! 'मैं बड़ा हूँ....मुझसे उम्र में छोटे को वन्दना कैसे करूँ?' यह है अभिमान की अभिव्यक्ति । अपने उत्कर्ष का विचार और दूसरों के अपकर्ष का विचार, अभिमान है। बाहुबली राज्य छोड़ सके, महल छोड़ सके, संपत्ति-वैभव का त्याग कर सके, भरत के अपराध को माफ कर सके, For Private And Personal Use Only
SR No.009631
Book TitleDhammam Sarnam Pavajjami Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptasuri
PublisherMahavir Jain Aradhana Kendra Koba
Publication Year2010
Total Pages274
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Religion
File Size2 MB
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