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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रवचन-६० १२४ 4. अवर्णवाद के पीछे होती है द्वेषबुद्धि। अवर्णवाद होता है किसी के चरित्र की हत्या करने के बदइरादे से, किसी को नीचा दिखाने की अधमवृत्ति से या फिर अपने दोषों को ढंकने के इरादे से। दूसरों के साथ वैर बाँधना बिलकुल उचित नहीं है। दुश्मनी बाँधने से तुम्हारा मन अशांत बनेगा, व्याकुल और व्यग्र । बनेगा। तुम्हारी धर्मआराधना खंडित होगी। सत्ताधीश का अवर्णवाद (बुराई) इसी जन्म में दुःख देता है। साधु-संतों का अवर्णवाद इस लोक-परलोक में दुःख देता है...इसलिए कहता हूँ कि अवर्णवाद की गन्दी आदत से दूर रहो। सामान्य धर्मों की उपेक्षा कर के, विशेष धर्मों की क्रिया करनेवाले लोग धर्मतत्त्व से अपरिचित रहते हैं। उनकी धर्मक्रियाएँ उन्हें अहंकारी और अभिमानी बनानेवाली हो जाती हैं। गुरुजनों का अवर्णवाद करनेवाले और सुननेवाले पापकर्म : बाँधते हैं। परदोषदर्शन के बिना अवर्णवाद संभव नहीं है। परदोषदर्शन मोक्षमार्ग की आराधना में बाधक तो है ही....जीवनयात्रा में भी अवरोधक बनता है। मनुष्य अन्तर्मुखी नहीं हो सकता, आत्मचिंतन नहीं कर सकता! । • प्रवचन : ६० महान् श्रुतधर, पूजनीय आचार्यदेव श्री हरिभद्रसूरिजी, स्वरचित 'धर्मबिंदु' ग्रन्थ के प्रारंभ में गृहस्थजीवन के सामान्य धर्मों का प्रतिपादन करते हैं। ये सामान्य धर्म सामान्य यानी साधारण धर्म नहीं हैं, असाधारण धर्म हैं, महत्त्वपूर्ण धर्म हैं। जिनको सफल मानवजीवन जीना है उनको इन धर्मों का पालन अवश्य करना होगा। ये धर्म, धर्म नहीं परन्तु जीवन के मूल्यवान अलंकार हैं। ___शारीरिक स्वस्थता, पारिवारिक शान्ति, सामाजिक प्रतिष्ठा, राजकीय सुरक्षा एवं निर्भयता-निश्चितता प्राप्त कर प्रसन्न जीवन जीना है तो इन ३५ सामान्य धर्मों का पालन करना ही होगा। यदि आप कुछ गहराई में जाकर सोचेंगे तो पता लगेगा कि शारीरिक बीमारियाँ, पारिवारिक अशान्ति, सामाजिक बेइज्जती, For Private And Personal Use Only
SR No.009631
Book TitleDhammam Sarnam Pavajjami Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptasuri
PublisherMahavir Jain Aradhana Kendra Koba
Publication Year2010
Total Pages274
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Religion
File Size2 MB
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